खेत से थाली तक
कैसे पहुंचता है यह धीमा जहर आप तक
वर्तमान में प्रत्येक व्यक्ति इसपर एकमत होगा कि ‘स्वास्थ्य ही धन है’। चंूकि स्वस्थ मनुष्य का मस्तिष्क हीसोचने समझने की क्षमता रखता है तथा उसकी कार्यनिष्ठा भी सही होती है। अतः स्वस्थ जीवन ही सफलताकी कुंजी है। और स्वस्थ जीवन जीने के लिये शरीर को समुचित मात्रा में स्वच्छ, स्वस्थ व संतुलित आहार की जरूरत होती है। इसीलिए कहा भी जाता है कि ‘‘जैसा खाएं, अन्न वैसा होवे मन’’।
आपका आहार खेत से थाली तक
आपने कभी सोचा कि जो भोजन आपकी थाली में आ रहा है वो क्या पूर्णतः स्वस्थ और पौष्टिक है? खेत से थाली तक का आपके आहार का सफर किन किन प्रक्रियाओं से होकर गुजरता है? शायद हम इन बातों पर विचारनहीं करते। हम तो कंपनी और ब्रांड पर विश्वास करते हैं और उसे अपना लेते हैं। पर मैगी, दूध, ग्लूकोज, नमकीन, दूध पाउडर आदि बड़ी कंपनियों के ब्रांडेड उत्पादों में मिलावट पाए जाने पर यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ है किक्या हम अपने गाड़े खून पसीने की कमाई से जो खा पी रहे है वो पूर्णतः सुरक्षित, स्वस्थ और पौष्टिक है? चलिए, जानते हैं कि क्या यह आहार हमारे लिए धीमा जहर तो साबित नहीं हो रहा है?
बदहाल भारत और हरित क्रांति
अंग्रेजों के बाद हमें जो स्वतंत्र भारत विरासत में मिला वो खाद्यान्न की कमी से जूझ रहा था। हजारों लोग प्रतिवर्ष अकाल की भेंट चढ़ते थे। ऐसे में, सबसे जरूरी था अनाज उत्पादन बढ़ाना, बुरे समय के लिए उसका भंडारणकरना तथा लाखों भूखे लोगों को खाद्य सुरक्षा उपलब्ध कराना। इसके लिए सरकार ने 1950-65 के बीच अनेक कदम उठाए जैसेकि बड़े बड़े बांध बनवाए, रासायनिक खाद के लिए कारखाने खोले, कृषि अनुसंधान केंद्र औरविश्वविद्यालय खोले आदि। इससे उत्पादन तो बढ़ा पर अभी भी आयात की मात्रा निरंतर बढ़ती जा रही थी। सरकार की स्थिति साहूकार से ऋण लेने वाले किसान जैसी होने लगी।
अनाज उधार पर देने वाले देशों विशेषकर अमेरिका ने कहना शुरू कर दिया कि आप कब तक यूं ही मांगते रहेंगे? अपने देश में अनाज उत्पादन क्यों नहीं बढ़ाते? ऐसे में, उन्होंने अपनी बात मनवाने के लिए दबाव बनानाशुरू कर दिया कि उनके द्वारा विकसित नए बीजों से खेती की जाए। पर समस्या उस समय यह थी कि नए बीजांे के लिए बहुत अधिक रासायनिक खादों की जरूरत होती थी, दूसरे नए बीजों की फसलों में बीमारियां भीआसानी से लगती थीं। फिर रासायनिक खाद और कीटनाशक दोनों का उत्पादन भी भारत में न के बराबर था। अब इन राष्ट्रों ने दबाव बनाया कि ये दोनों चीजें भी हमसे खरीदी जाए या हमारे उद्योगपतियों को अनुमति दीजाए कि वे भारत में कारखाने लगाए।
स्थिति तब और विकट हो गई जब और अधिक धन की जरूरत पड़ी। क्योंकि अब अनाज के साथ-साथ रासायनिक खाद और कीटनाशक भी खरीदने पड़ेगे। 1965-66 के भारत पाकिस्तान युद्ध, अमीर देशों द्वारा उधारअनाज देने में आनाकानी और उस समय पड़े भयंकर सूखे के बीच बड़ी बहस ने नई कृषि नीति ‘‘हरित क्रांति’’ को जन्म दिया। ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा देकर प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने कृषि उत्पादन कोराष्ट्र की सेवा बताते हुए युद्ध के मैदान में भारतीय सैनिकों की बहादुरी से इसकी बराबरी की। इसने देश में हरित क्रांति के बीज बोने वाले किसानों के साथ ही कृषि क्षेत्र में लगे वैज्ञानिकों को भी प्रेरित किया। डॉ एम.एस.स्वामीनाथन जैसे प्रमुख वैज्ञानिकों के प्रयासों से धीरे-धीरे भारतीय कृषि क्षेत्र की पैदावार में सुधार होना शुरु हो गया और शैनः-शैनः भारत आयातक की श्रेणी से निर्यातक की श्रेणी आ खड़ा हुआ। हरित क्रांति ने हमारीतत्कालीन जरूरतों को तो पूरा किया लेकिन अनेक समस्याओं को जन्म दिया।
विकास कभी भी अकेला नहीं आता वो अपने साथ अनेक प्रकार की बीमारियां और दुष्वारियां भी लेकर आता है। इसी का नतीजा सामने आया। हरित क्रांति सेे रासायनिक खादों, कीटनाशकों और पानी की अधिक खपत होनेलगी। अधिक उत्पादन के लालच ने खेत और किसान दोनों को बर्बादी के कगार पर ला खड़ा किया। जमीन निरुत्तर हो गई, जल संसाधन हांफने लगे, फसलों में अत्यधिक कीटनाशकों के प्रयोग से जहर खाद्य वस्तुओं केमाध्यम से खेत से हमारे पेट तक पहुंचने लगा और दूषित खान पान, वायु व जल ने आज अनेक रोगों को जन्म दिया। इस प्रकार किसान और धरती के बीच बना हुआ माँ-बेटे का पवित्र रिश्ता लालच की भेंट चढ़ गया।
कृषि और पशुपालन की परंपरा का अवरुद्धन
किसानों ने कृषि और पशुपालन की अपनी प्राचीन परंपरा, जोकि कृषि व्यवस्था और किसान के लिए संजीवनी बूटी का काम कर रही थी, से किनारा करना शुरू कर दिया। इससे जहां पशुधन का विकास अवरूद्ध हुआ वहीं कृषि ंिवकास दर भी नकारात्मक होने लगी। 1960-61 में 8.2 करोड़ टन से बढ़कर उत्पादन 2011-12 में 25 करोड़ टन तो हो गया पर जीडीपी में कृषि का योगदान निरंतर गिरने लगा। 2011-12 में कृषि विकास दर2.8 प्रतिशत पर आ गई और जीडीपी में योगदान मात्र 13.7 प्रतिशत रह गया। जबकि 2009-10 में जीडीपी में कृषि का योगदान 14.6 प्रतिशत था। बेहाल किसानों ने मौत को गले लगाना शुरू कर दिया। ऐसे में बड़ा प्रश्न यह उठने लगा कि आखिर खाद्य सुरक्षा के लिए प्रमुख कृषि उत्पादन और पशुधन के प्रति हम इतने उदासीन क्यों हैं? यह एक चिंतनीय विषय है।
बड़ी समस्या, स्थायी समाधान की जरूरत
एक बहुत ही पुरानी कहावत है-‘‘समस्या बहुत बढ़ जाए तो मूल की ओर लौटो।’’ वर्तमान में किसानों की आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं ने साफ कर दिया है कि अब वक्त मूल की ओर लौटने का है। अर्थात् कृषि प्राचीनकालमें भी होती थी, जबकि रासायनिक खाद व कीटनाशक नहीं थे। तब गोबर किसान के लिए खाद का काम करता था। नीम और हल्दी का प्रयोग वे कीटनाशक के रूप में करते थे। परंतु समय के साथ-साथ रासायनिक खाद काप्रयोग बढ़ा, किसानों की किस्मत उससे रूठने लगी। भूमि बंजर होने लगी। खाद्यान्न जहरीले बनने लगे।
परेशान किसान अब रासायनिक खाद व कीटनाशकों के चक्रव्यूह से निकलना चाहता है ताकि भूमि को फिर से उर्वरक बनाया जा सके। समस्या रासायनिक खादों व कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग की ही नहीं है। विकटस्थिति यह है कि किसान अपनी पुरातन पंरपरा कृषि और पशुपालन के मेल से दूर होता जा रहा है। पहले किसान गाय, भैंस, बैल रखता था। अब उसका स्थान टैªक्टर-ट्राली ने ले लिया है। और गोबर तथा कंपोस्ट खाद कीजगह यूरिया व उर्वरकों ने ले लिया है। पहले किसान गोबर और पत्तों से बनी जैविक खाद का प्रयोग करता था जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति तो बनी ही रहती थी साथ ही उच्च गुणवत्तायुक्त फसल भी मिलती थी। वह संपन्न थेतभी तो उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भाग ही नहीं लिया वरन् दिल खोकर धन भी दिया। ऐसे में अंग्रेजों ने किसान को कमजोर करने के लिए लैंड एक्यूसाईजे़शन कानून बनाया ताकि वे आर्थिक, शारीरिक व मानसिक रूप सेगुलाम बन जाए।
अब समय आ गया है कि किसान फिर से अपनी आधुनिक तकनीकों के साथ साथ अपनी पुरातन परंपरा को भी अपनाएं। प्राचीनकाल से ही हमारे सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिवेश में कृषि की प्रधानता और पशुपालनकी परिकल्पना रही है। चूंकि खाद्य सुरक्षा तभी सुनिश्चित हो सकती है जब कृषि उत्पाद के साथ साथ पशुधन उत्पाद भी उपलब्ध हों। साथ ही इससे जहां कृषि के लिए उर्वरक और ऊर्जा मिलती है वहीं कृषि के अपशिष्टउत्पाद पशुओं के आहार में उपयोग किए जाते हैं। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि पशुपालन से किसानों को नियमित आय होती है। अगर आज भी भारतीय कृषि में गौवंश का महत्वपूर्ण योगदान लिया जाए तो हमारी धरतीसोना उगल सकती है। प्राचीन समय मे ंभी सदियों तक भारत को सोने की चिडि़या बनाने में गाय का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
जैविक खेती
हरित क्रांति के बाद यूरोपीय देशों ने हमें जैविक खेती के लिए प्रेरित करना शुरू कर दिया है। जैविक कृषि द्वारा उत्पादित और प्रमाणित वस्तुओं का बाजार मूल्य सामान्य वस्तुओं से कही अधिक होता है। इसके बावजूदकिसानों को उसका लाभ नहीं मिलता। इसके फायदे का अधिकांश भाग जैविक उत्पादों की मार्केटिंग करने वाली संस्थाएं ले जाती हैं या फिर बिचैलिए। साथ ही इस तरीके में प्रमाणीकरण के सभी मापदंड यूरोप औरअमेरिका में बने हुए होते हैं या फिर उनके अनुसार बनाए जाते हैं। इसके लिए तर्क दिया जाता है कि यदि जैविक उत्पाद का निर्यात करना है तो वहां के मापदंडों को स्वीकार करना ही होगा और यदि निर्यात की संभावना कोछोड़ दें तो किसानों को जैविक खेती का कोई फायदा नहीं मिल पाएगा। कृषि विद्वान सुभाष पालेकर के शब्दों में, ‘‘जैविक खेती की बातें केवल दिखावे की हैं। यह खेती का व्यावसायीकरण करने का एक षडयंत्र मात्र है।किसानों को जितना खतरा वैश्वीकरण से है, उतना ही जैविक खेती व्यावसायीकरण से भी है।’’ गत दिनों दिल्ली में आयोजित इंडिया आर्गेनिक ट्रेड फेयर में किसान के इन सवालों के जवाब कोई भी नहीं दे पाया कि उन्हेंजैविक खेती करने से क्या लाभ है? और जैविक वस्तुओं का मूल्य यद्यपि किसान से खरीदे गए मूल्य से बहुत अधिक है इसके बावजूद इसमें किसान का हिस्सा कहां है? दबे स्वर में एक प्रसिद्ध प्रमाणीकरण संस्था केपरीक्षणकत्र्ता ने स्वीकारा कि जैविक खेती के विदेशों में स्वीकृत मापदंड भारत की परिस्थितियों के अनुकूल नहीं हैं। यही वजह है कि निर्धन भारतीय किसान अपनी कृषि को जैविक प्रमाणित नहीं कर सकता।
किसान हितकारी सरकारी नीतियां
हालांकि वर्तमान सरकार ने किसानों की इन समस्याओं को समझा और गत वर्षों में अनेक कदम उठाए जैसे देशज गौपशु संपदा विकास, प्राकृतिक ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा, मिट्टी की जांच के लिए प्रयोगशालाएं, किसानों केलिए अलग चैनल, राष्ट्रीय फसल बीमा योजना, किसान क्रेडिट कार्ड योजना, राष्ट्रीय सिंचाई योजना, कमजोर वर्ग की सहकारी समितियों को सहायता, महिला सहकारी समितियों को सहायता, मृदा संरक्षण, क्षारीय मृदा काविकास एवं सुधार और राज्य भूमि प्रयोग बोर्ड आदि हैं। मगर अज्ञानता और जागरूकता की कमी के चलते देश के छोटे और मझोले किसानों तक इनका लाभ अभी तक नहीं पहुंच पाया है।
भोजन में फैल रहा धीमा जहर
डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार कैंसर जैसी बीमारी के फैलने का मुख्य कारण भी फसलों में अंधाधुंध प्रयोग हो रहे कीटनाशक हैं। देश में फसलों पर हर वर्ष 25 लाख टन पेस्टीसाइड का प्रयोग होता है। इस प्रकार हर वर्ष10 हजार करोड़ रुपए खेती में इस्तेमाल होने वाले पेस्टीसाइडों पर खर्च हो जाते हैं। आज खतरा केवल रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के बढ़ते प्रयोग से ही नहीं है बल्कि खाद्य पदार्थों मे जिस तरह मिलावट का धंधाफल-फूल रहा है वह मानवीय स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर खतरा बन गया है। हरित क्रांति के बाद रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का अंधाधुंध उपयोग न केवल खेतों में बल्कि खेतों से बाहर मंडियों तक में होने लगा।नतीजा आज शाकाहार या मांसाहार कोई भी भोज्य पदार्थ सुरक्षित नहीं रह गया है। मैगी पर उठा बवाल तो कुछ भी नहीं अनाज से लेकर दूध, दही, घी, पनीर और फल आदि में भी मिलावट हो रही है। डेरी और कृषि उत्पादोंविशेषकर सब्जियों में आॅक्सिटोसिन का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है। डाॅक्टरों का कहना है कि यह मानव शरीर के लिए काफी खतरनाक है। कई प्रतिष्ठित कंपनियों के उत्पाद भी विश्वसनीय नहीं रह गए।
फूड सोर्स माॅनिटरिंग कंपनी फूड सेंट्री की माने तो भारत संसार में खाद्य मानकों का उल्लंघन करने वाला सबसे बड़ा देश है। मार्च माह में संसदीय बजट सत्र के दौरान स्वास्थ्य मंत्री जे.पी. नड्डा ने इसे बेहद गंभीर मसलाबताया। एफएसएसएआइ की वार्षिक सार्वजनिक प्रयोगशाला परीक्षण रिपोर्ट 2014-15 में कहा गया है कि हर पांच में से एक खाद्य नमूना भारत में गुणवत्ता परीक्षण में नाकाम हो जाता है। एफएसएसएआइ द्वारा सारे देश सेजुटाए आंकड़ों में पता चलता है कि खाने में हेराफेरी काफी तीव्रता से बढ़ी है, कुल किए गए जुर्मानों में उत्तर प्रदेश, म.प्र., केरल, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश का ही भाग केवल 90 प्रतिशत है।
पशुओं पर भी बुरा प्रभाव
कीटनाशक तो पशुओं के हरे चारे को भी जहरीला बना रहे हैं। इससे पशुओं के शरीर व उनका दूध भी प्रभावित हो रहा है। फलस्वरूप कीटनाशियों का जहरीला प्रभाव मवेशियों व पशुओं के शरीर पर पड़ता है। दुधारू पशुओं सेमिलने वाला दूध भी कीटनाशियों से प्रभावित हो जाता है। यहां तक की इन पशुओं का मांस भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।
माँ का दूध भी नहीं बचा
सोना उगलने वाली धरती और प्रदूषित जल के बाद अब अमृत कहे जाने वाला मां का दूध भी नवजात के लिए मौत का दूत बनता जा रहा है। मिलावटी व बेमौसमी फल व सब्जियों का सेवन करने से मां का दूध जहरीलाहोता जा रहा है। ऐसे में यह दूध नवजात के लिए जानलेवा साबित हो सकता है। महाराष्ट्र के रत्नागिरी के चिपलुन के डीबीजे काॅलेज के जिओलाॅजी विभाग के एक अध्ययन के अनुसार मां के दूध में रसायनों की मात्राखतरनाक स्तर तक पाई गई है। विभाग ने कोटावली सहित इलाके के सात गांवों अवाशी, लोटे, गुनाडे, गनुकंड, सोनगांव और पीरलोटे में वर्ष 2003-2004 के बीच अध्ययन किया। पशुओं के दूध में सीसे की मात्रा 3.008पीपीएम पाई गई, जबकि इसकी उचित मात्रा 0.1 है। इसी तरह मां के दूध में भी एल्यूमीनियम की मात्रा 5.802 पीपीएम दर्ज की गई, जबकि इसकी मात्रा 0.3 होनी चाहिए। इसके अलावा दूध में क्रोमियम, निकल औरआयरन भी पाया गया।
विश्व स्वास्थ्य दिवस 2015-‘‘खाद्य सुरक्षा खेत से लेकर थाली में पहुंचने तक’’
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, दो सौ से अधिक बीमारियों का कारण रासायनिक पदार्थों अथवा वायरस, परजीवी और बैक्टीरिया जैसे हानिकारक रोगाणुओं से युक्त नुकसानदायक भोजन हैं। यहअनुमान है कि दो लाख लोगों की मृत्यु हर वर्ष दूषित पानी पीने अथवा भोजन खाने से होती हैं। भारतीय संदर्भ में, छह प्रतिशत मृत्यु का कारण डायरिया/अतिसार रोग हैं। यह आंकड़े मृत्यु के कारणों की सूची में सबसेऊपर हैं। विश्वभर में ऐसी समस्याओं के मद्देनजर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस वर्ष को थीम दी है-‘‘खेत से थाली तक फूड सेफ्टी’’।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की मान्यता के अनुसार सुरक्षित आहार की पांच कुंजियां हैं-स्वच्छता रखें, कच्चे और पके भोजन को अलग रखें, भोजन को अच्छी तरह से पकाएं, भोजन को उचित तापमान में रखें एवं पानी कोस्वच्छ/सुरक्षित रखें तथा कच्चे खाद्य पदार्थों का उपयोग करें। डब्ल्यूएचओ का मानना है कि खाद्य सुरक्षा एक साझा जिम्मेदारी है-जिसके लिए उपभोक्ताओं, विक्रेताओं, उत्पादकों और किसानों सभी को एक साथ मिलकरकाम करने की ज़रूरत है।
निष्कर्ष-प्राकृतिक कृषि (जीरो बजट खेती) ही समाधान
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने सत्य ही कहा है कि ‘‘धरती में इतनी क्षमता है कि वह सब की जरूरतों को पूरा कर सकती है, लेकिन किसी के लालच को पूरा करने में वह सक्षम नहीं है..।’’ लेकिन हमने अपने लालच के लिएधरती माता को रासायनिक खाद और कीटनाशकों से पाट दिया है। इसलिए जो फसल हो रही है उसके दानों में जीवन कम जहर अधिक समा गया है। जो अन्न हम ग्रहण कर रहे हैं वह पोषण न देकर स्वास्थ्य को बिगाड़रहा है। इसलिए जैविक या प्राकृतिक खेती पर ज्यादा जोर दिया जाने लगा है।
हमारे कृषि आधारित देश में रासायनिक खेती के बाद अब जैविक खेती सहित पर्यावरण हितैषी खेती, एग्रो इकोलोजीकल फार्मिंग, बायोडायनामिक फार्मिंग, वैकल्पिक खेती, शाश्वत कृषि, सावयव कृषि, सजीव खेती,सांद्रिय खेती, पंचगव्य, दशगव्य कृषि तथा नडेप कृषि जैसी अनेक प्रकार की विधियां अपनाई जा रही हैं और संबंधित जानकार इसकी सफलता के दावे करते आ रहे हैं। लेकिन किसान आज भी हैरान परेशान हैै। रासायनिकखेती के बाद उसे अब जैविक कृषि दिखाई दे रही है । किन्तु जैविक खेती से ज्यादा सस्ती, सरल एवं ग्लोबल वार्मिंग (पृथ्वी के बढ़ते तापमान) का मुकाबला करने वाली “जीरो बजट प्राकृतिक खेती“ मानी जा रही है ।
जीरो बजट प्राकृतिक खेती देसी गाय के गोबर एवं गौमूत्र पर आधारित है। एक देसी गाय के गोबर एवं गौमूत्र से एक किसान तीस एकड़ जमीन पर जीरो बजट खेती कर सकता है। देसी प्रजाति के गौवंश के गोबर एवं मूत्र सेजीवामृत, घनजीवामृत तथा जामन बीजामृत बनाया जाता है। इनका खेत में उपयोग करने से मिट्टी में पोषक तत्वों की वृद्धि के साथ-साथ जैविक गतिविधियों का विस्तार होता है। इस विधि से खेती करने वाले किसानको बाजार से किसी प्रकार की खाद और कीटनाशक रसायन खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती है। फसलों की सिंचाई के लिये पानी एवं बिजली भी मौजूदा खेती-बाड़ी की तुलना में दस प्रतिशत ही खर्च होती है। जीरो बजटप्राकृतिक खेती जैविक खेती से भिन्न है तथा ग्लोबल वार्मिंग और वायुमंडल में आने वाले बदलाव का मुकाबला एवं उसे रोकने में सक्षम है। अब तक देश में लगभग 40 लाख किसान इस विधि से जुड़े हुये हैं।
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