Tuesday 31 May 2016

इस किसान का है देखें कमाल
ऐसे ले रहा है 2.5 एकड़ जमीन से दस-बारह लाख रु. की वार्षिक आय

खेती किसानी छोड़ने की बात तो जहां तहां आप पढ़ते ही रहे होंगे लेकिन इनमें में कुछ ऐसे उदाहरण हैं जोकि जैविक खेती करते हुए अच्छी आमदनी ही नहीं ले रहे बल्कि धरती मां के स्वास्थ्य का ध्यान भी रखते हैं, पर्यावरण को भी सुरक्षित रखने की बात को ठाने हुए हैं। ऐसे ही हैं अकबरपुर बरोटा गांव (सोनीपत, हरियाणा) के श्री रमेश डागर। श्री डागर को 1970 में पारिवारिक परिस्थितियों के कारण मैट्रिक स्तर पर ही पढ़ाई छोड़कर खेती में लगना पड़ा। उस समय उनके पास केवल 16 एकड़ जमीन थी। शुरूआत में उन्होंने साधारण तरीके से खेती की पर संतुष्टि नहीं मिली कुछ अलग करने व समृध्दि के रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए सब्जी (टिन्डे) की खेती की जिससे उन्हें बाजरे और गेहूं से तीन गुना ज्यादा आमदनी हुई। बाजार में फूलों की विशेष मांग को देखते हुए प्रयोग के तौर पर फूलों की भी खेती शुरू की, जिससे सबसे ज्यादा आमदनी हुई। फिर 1987-88 में बेबीकार्न की खेती की जिससे काफी लाभ हुआ। 

रमेशजी खेतों में रासायनिक खाद या उर्वरक का बिल्कुल इस्तेमाल नहीं करते। खाद के तौर पर मैं केंचुआ खाद व गोबर खाद का ही इस्तेमाल करते हैं। उनका कहना है कि पहली बार जब मैंने अपने खेत की मिट्टी की जांच करवाई तो पता चला कि रासायनिक खाद के इस्तेमाल का जमीन पर कितना बुरा प्रभाव पड़ता है। यदि रासायनिक खाद का इसी तरह इस्तेमाल होता रहा तो आने वाले 50-60 वर्षों में हमारी जमीनें बंजर हो जाएंगी। आर्थिक रूप से भी रासायनिक खाद का इस्तेमाल किसान के हित में नहीं रहा। हरित क्रांति से किसानों के खर्चे तो बढ़ गए पर आमदनी कम होती गई। जहां पहले एक कट्ठे यूरिया से काम चल जाता था, वहीं आज पांच कट्ठा लगता है। इससे किसान कर्जदार होता जा रहा है। हम खेती की अपनी पुरानी पध्दति को विज्ञान के साथ जोड़कर एक नया रास्ता ढूंढ सकते हैं और यह रास्ता हमने जैविक कृषि के रूप में विकसित कर लिया है।
रमेश डागर जैविक आधार पर की बहुआयामी खेती करते हैं। किस मौसम में कौन सी फसल की खेती करनी है, यह तय करने के पहले वह जमीन की गुणवत्ता और पानी की उपलब्धता के साथ-साथ बाजार की मांग को भी हमेशा ध्यान में रखते हैं। इसकी खेती के कुछ प्रमुख पहलू हैं :

केंचुआ खाद : डागरजी अपने खेतों में केंचुआ खाद का खूब प्रयोग करते हैं। एक किलो केंचुआ वर्ष भर में 50-60 किलो केंचुआ पैदा कर सकता है। केंचुआ खाद बनाने में खेती के सारे बेकार पदार्थों, जैसे डंठल, सड़ी घास, भूसा, गोबर, चारा आदि का प्रयोग हो जाता है। सब मिलाकर केंचुए से 60-70 दिनों में खाद तैयार हो जाती है। इस खाद की प्रति एकड़ खपत यूरिया की अपेक्षा एक चौथाई है। इसके प्रयोग से मिट्टी को नुकसान भी नहीं पहुंचता है। फसल की उत्पादकता भी 20-30 प्रतिशत बढ़ जाती है। केंचुआ खाद बनाने पर यदि किसान ध्यान दें तो वे अपने खेतों में प्रयोग करने के बाद इसे बेच भी सकते हैं। यह किसान भाईयों के लिए आमदनी का एक अतिरिक्त स्रोत भी हो सकता है।
बायोगैस : रमेशजी बायोगैस का इतना अधिक उत्पादन कर लेते हैं कि इससे इंजन चलाने और अन्य जरूरतें पूरी करने के बाद भी गैस बच जाती है। बची हुई गैस वे अपने मजदूरों में बांट देता हूं। इससे उनके भी ईंधन का काम चल जाता है। बायोगैस का उन्होंने एक परिवर्तित माडल तैयार किया है जिसमें प्रतिघन मीटर की लागत 5000 रुपए की बजाय 1000 रुपए हो जाती है। इस माडल में गैस प्लांट की मरम्मत का खर्चा भी न के बराबर है।
मशरूम खेती : डागरजी मशरूम की कई फसलें लेते हैं। उनका कहना है कि जिन किसान भाइयों के यहां मार्केट नजदीक नहीं है, उन्हें डिंगरी (ड्राई मशरूम) की फसल लेनी चाहिए। आज पूरी दुनिया में डिंगरी का 80 हजार करोड़ का बाजार है। जहां धान की फसल होती है, वहां इसकी खेती की संभावनाएं सबसे अधिक होती हैं क्योंकि इसकी खेती में पुआल का विशेष रूप से प्रयोग होता है। फसल लेने के बाद बेकार बचे हुए पदार्थों को मैं केंचुआ खाद में बदल कर 60-70 दिनों में वापस खेतों में पहुंचा देता हूं
तालाब एवं मछली पालन : खेत के सबसे नीचे कोने को और गहरा करके डागरजी ने तालाब बना दिया है, जिसमें बरसात का सारा पानी इकट्ठा होता है और डेरी का सारा व्यर्थ पानी भी चला जाता है। डेरी के पानी में मिला गोबर आदि मछलियों का भोजन बन जाता है। इससे उनका विकास दोगुना हो जाता है। मछलीपालन के अलावा तालाब में कमल ककड़ी, मखाना आदि भी वे उगाते हैं।

बहुफसलीय खेती : मैं एक साथ तीन से चार फसल लेता हूं। ऐसा करते समय वह समय, तापमान और मेल का विशेष ध्यान रखते हैं। उदाहरण के तौर पर सितंबर माह के अंत में मूली की बुवाई हो जाती है जिसके साथ गेंदा फूल भी लगा देते हैं। मूली को अक्टूबर में निकाल लेते हैं और नवंबर के शुरूआत में पालक या तोरी आदि लगा देते हैं जिसकी कटाई दिसंबर में हो जाती है। वहीं फूलों से आमदनी जनवरी से शुरू हो जाती है।
गुलाब एवं स्टीवीया : स्टीवीया एक छोटा सा पौधा है जिससे निकलने वाला रस चीनी से 300 गुना ज्यादा मीठा होता है। इसका प्रयोग मधुमेह के मरीज भी कर सकते हैं। श्री रमेशजी इसकी खेती से प्रति एकड़ लाखों रुपए की कमाई कर रहे हैं। एक विशेष प्रकार के महारानी प्रजाति के गुलाब की खेती से भी उन्होंने काफी लाभ कमाया है। इस गुलाब से निकलने वाले तेल की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में 4 लाख रुपए प्रति लीटर है। एक एकड़ में उत्पादित गुलाब से लगभग 800 ग्राम तेल निकाला जा सकता है।
केले की खेती : केले की खेती से जमीन में केंचुओं की संख्या बहुत ज्यादा हो जाती है। केला एक ऐसा पौधा है जो खराब एवं पथरीली जमीन को भी कोमल मिट्टी में तब्दील कर देता है। इसके प्रभाव से किसी भी फसल की उत्पादकता 25 से 30 प्रतिशत बढ़ जाती है। केले की जैविक खेती करने से पौधे सामान्य से ज्यादा ऊंचाई के होते हैं। इसकी खेती से लगभग 25 से 30 हजार रुपए प्रति एकड़ की आमदनी हो जाती है। गर्मी में केलों के बीच में ठंडक रहती है इसलिए इसमें फूलों की भी खेती हो जाती है, जिससे 15-20 हजार रुपए की अतिरिक्त आमदनी हो जाती है। गर्मी के दिनों में मधुमक्खी के बक्सों को रखने के लिए भी यह सबसे सुरक्षित स्थान होता है।
वृक्षारोपण : खेतों की मेड़ों पर श्री डागरजी ने पापुलर आदि के पेड़ लगा रखे हैं जिससे 7 से 8 वर्षों में प्रति एकड़ 70 से 80 हजार रुपए की आमदनी हो जाती है। इन वृक्षों से खेतों को नुकसान भी नहीं होता और पर्यावरण भी ठीक रहता है।
मधुमक्खी पालन : मधुमक्खी से भरे एक बक्से की कीमत लगभग चार हजार रुपए होती है। रमेशजी कहते हैं कि खेती में मधुमक्खियों की विशेष भूमिका है। वैसे भूमिहीन किसान भाइयों के लिए भी मधुमक्खी पालन एक अच्छा काम है। शहद उत्पादन के अलावा भी इनके कई फायदे हैं। फूलों की पैदावार में इनसे 30 से 40 प्रतिशत और तिलहन-दलहन की पैदावार में लगभग 10 से 20 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो जाती है। बेहतर परागण के कारण फसलें भी एक ही समय पर पकती हैं। इस क्षेत्र में खादी ग्रामोद्योग एवं कई अन्य संस्थाएं सहायता कर रही हैं।
रमेश डागर कहते हैं कि मैंने 2.5 एकड़ में छः परियोजनाएं चला रखी हैंः
1. मधुमक्खी पालन : मधुमक्खियों के 150 बक्सों से हम शुरुआत करते हैं। एक ही साल में इनकी संख्या दोगुनी हो जाती है। इससे साल में 5-6 लाख की आमदनी हो जाती है।
2. केंचुआ खादः इसे बेचकर मैं 3-4 लाख रुपए की आमदनी कर लेता हूं।
3. मशरूम खेतीः इससे मुझे प्रतिवर्ष 3-4 लाख रुपए मिल जाते हैं। 
4. डेरीः एक छोटी सी डेरी से लगभग 60-70 हजार की सीधी आय होती है।
5. मछली पालन : इससे भी लगभग 15-20 हजार रुपए मिल जाते हैं।
6. ग्रीन हाउस : इसमें लगी फसल से एक-डेढ़ लाख रुपए आ जाते हैं।
डागरजी कहते हैं कि समझदार किसान तो वो है जो पहले मार्केट देखे, फिर मिट्टी की जांच कराए, तापमान का ख्याल रखे और अच्छे बीज का चयन करे। किसान भाइयों को जैविक खेती ही करनी चाहिए, मवेशी रखनी चाहिए, बायोगैस तथा वर्मी कम्पोस्ट तैयार करना चाहिए। 365 दिन में 300 दिन कैसे काम करें, प्रत्येक किसान को इसकी चिन्ता करनी चाहिए। हमें एक-दो फसलें ही नहीं बल्कि एक-दूसरे पर आश्रित खेती की बहुआयामी व्यवस्था विकसित करनी चाहिए। 

Monday 9 May 2016

एमबीए युवाओं ने लाखों का पैकेज छोड़ खोल ली डेरी
करते हैं शुद्ध दूध का वायदा


कभी कहा जाता था कि डंगर के साथ तो डंगर बनना पड़ता है। यानि पशुओं के बीच तो पशु की तरह अनपढ़ और गंवार व्यक्ति ही काम कर सकता है। इस मिथ को तोड़ दिया है आज की शिक्षित युवा पीढ़ी ने। इसके अनेक उदाहरण हैैैं जिसमें से एक आज हम आपके लिए लेकर आए हैं।
बिलासपुर के रहने वाले तीन युवकों के पास भगवान का दिया सबकुछ था जिसकी आजकल के युवा को इच्छा होती है। इनमें से दो युवक तो एमबीए पास हैं जबकि एक बहन हेयर स्टाइल एक्सपर्ट है। तीनों भाई-बहन मल्टीनेशनल कंपनियों में कार्यरत थे वो भी तीन लाख रुपए मासिक वेतन के पैकेज पर। सत्येंद्र व श्वेता 50-50 हजार रुपए मासिक पर मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी करते थे। पढ़ाई पूरी करने से पहले ही दो लाख रुपए मासिक सैलेरी पर शिल्पी की प्लेसमेंट मुंबई में हाकिम अली कंपनी में हो गई।

करीब 7 एकड़ में सेमरताल गांव (रतनपुर रोड, बिलासपुर ) में सुरभि गौशाला है जिसके संचालक हैं- सत्येंद्र सिंह राजपूत (32), श्वेता राजपूत (30) व शिल्पी राजपूत (25)। जहां सत्येंद्र एमबीए (रिटेल) है तो श्वेता ने एमबीए (मार्केटिंग) किया है। शिल्पी ने हेयर स्टाइल में इंटरनेशनल सर्टिफिकेट हासिल किया है। तीनों में मन थी कुछ नया और अलग की इच्छा जिसका नतीजा यह हुआ कि वे गांव लौट आए और डेरी का व्यवसाय शुरू कर दिया। वास्तव में हुआ यूं कि भाई-बहन नौकरी को छोड़ना चाहते थे पर समझ नहीं आ रहा था कि आखिर क्या व्यवसाय करें ताकि आमदनी के साथ-साथ समाज सेवा भी हो सके। ऐसे में, गैस पर दूध गर्म करने के लिए पर भूल जाने से दूध जल गया। बर्तन की सतह जल गई थी और उसमें दूध की एक बूंद भी नहीं थी।  काफी परिचर्चा के बाद निष्कर्ष निकला कि घर में अब तक मिलावटी दूध आ रहा था। इसी से प्रेरित होकर उन्होंने डेरी खोली।

कामों में आसपास में बांट लिया गया। गाय की देखभाल, सफाई व दूध निकालने की जिम्मेदारी सत्येंद्र को मिली तो एकाउंट रखने का उत्तरदायित्व श्वेता को दिया गया। शिल्पी को नौकर के साथ स्कूटी पर घर-घर दूध पहुंचाने का काम मिला है। पर इन्होंने संकल्प लिया कि चाय बनाने वालों को दूध नहीं बेचेगें। वजह आज बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक को शुद्ध दूध नहीं मिल रहा और उनके स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ रहा है। चाय तो दूध पावडर से भी बना सकती है। यह दूध की शुद्धता की जांच के लिए लेक्टोमीटर का उपयोग करते हैं।
सत्येंद्र की माने तो नौकरी करते हुए महसूस हुआ कि वह दूसरों के लिए 10 से 12 घंटे तक काम करने की बजाय सुकून देने वाला खुद का कारोबार कर सकता है। विद्युत मंडल में अधिकारी पिता एचएस राजपूत के मार्गदर्शन एवं रिटायरमेंट फंड तथा 13 लाख के बैंक लोन पर गौशाला खड़ी की गई। 6 लाख रुपए में 9 साहीवाल और एक गिर नस्ल की गायें खरीदी गई। इनमें से 5 गाय 55 लीटर प्रतिदिन दूध दे रही हैं।

Monday 2 May 2016

एक सरपंच ने कुछ माह ही बदल डाली इस गांव की तस्वीर
वाईफाई से लैस यह गांव अच्छे-अच्छे शहरों से ले रहा है टक्कर  

         
          महात्मा गांधी ने कहा था कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है इसलिए गांव के विकास ही देश का विकास हो सकता है। इस बात पर देश की सरकारों ने अमल किया किंतु सरकार की भी अपनी सीमाएं होती हैं। ऐसे में, कहीं न कहीं, कुछ न कुछ कमी जरूर रह गई। विकास हुआ जरूर, पर जितना होना चाहिए था उतना नहीं हुआ। इस स्थितियों में, कुछ गांव ऐसे भी हैं जिन्होंने अपने दम पर अच्छे-अच्छे शहरों को मत दे डाली। तो चलिए आज ऐसे ही हरियाणा के गांव के बारे में जानते हैं।

लगभग छः हजार जनसंख्या वाले झट्‌टीपुर गांव (पानीपत, हरियाणा) में ऐसा पहली बार हुआ जबकि शिक्षित पंचायत चुनकर आई। एक सरपंच श्री अशोक ने गांव की तस्वीर ही बदल दी, जिसका प्रभाव केवल दो माह में ही दिखाई देने लगा, मजे की बात तो यह रही कि वह भी बिना किसी सरकारी सहायता के। आज यह गांव लगभग सारी आधुनिक सुविधाओं से लैस हो चुका है। गांव तक व उसके भीतर साफ-सुथरी आरसीसी सड़कें व इंटरलॉकिंग गलियां बन चुकी हैं। प्रत्येक गली में अलग सफाई कर्मचारी तैनात है। कूड़ा उठाने को बैट्री रिक्शा है। सफाई कर्मचारियों के मोबाइल नंबर दीवार पर लगे बोर्ड पर लिखे हुए हैं। शिकायत के लिए एक वाट्सएप नंबर है। पूरा गांव वाईफाई है।
आरंभ में काम के लिए धन चाहिए था। प्रस्ताव बनाए गए पर सरकारी अफसरों ने तब्जो न दी। पंचायत ने मजबूर होकर आय पर ध्यान दिया। नतीजा आज उसे 12 लाख प्रतिवर्ष आय होती है। इस राशि का इस्तेमाल  गांव के आधुनिकरण के लिए किया गया। निकट की कंपनियों से भी सहायता मिली। कोई ई-टायलेट के लिए तो कोई पेड़-पौधे के लिए मदद दे गया।

एमए, एमफिल व एलएलबी कर चुके सरपंच अशोक की माने तो शपथ लेने से पूर्व समाचार-पत्रों में गुजरात व महाराष्ट्र की अच्छी पंचायतों के बारे में पढ़ता था और सोचता था कि मैं भी अपनी पंचायत को ऐसे ही बनाऊंगा ताकि वह दूसरों के लिए मिसाल बन सके। सरपंच बनने पर सर्वप्रथम घर-घर जाकर बच्चों को स्कूल भेजने को कहा। असर दिखा और 500 से अधिक दाखिले केवल दो माह में ही हो गए। प्राइमरी, सेकंडरी और सीनियर सेकेंडरी स्कूल वाले गांव में अध्यापकों की कमी थी। मैंने एम.ए. पास अपनी पत्नी से पढ़ाने को कहा। परिणामस्वरूप आज स्मार्ट क्लास में पढ़ाई होने वाली है।

महिला सुरक्षा को विशेष महत्व देते हुए तीन रास्तों पर सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं। 200 से अधिक लोगों को इंटरनेट सुविधा दी जा चुकी है। गांव को वाईफाई किए जाने पर लोगों की प्रतिक्रिया थी कि इंटरनेट का मिसयूज होगा। ऐसे में, आईडी प्रूफ लेकर लॉगइन आईडी और पासवर्ड दिया गया। अभी तो गांव से ही ऑनलाइन आवेदन आ रहे हैं। बुजुर्गों की पेंशन के लिए बैंककर्मियों को गांव में ही बुलाया जाता है। 99 प्रतिशत घरों में टॉयलेट बनवाए जा चुके हैं। जहां यह नहीं हैं वहां ई-टॉयलेट व्यवस्था करवाई गई है। गांव में दो ट्यूबवेल हैं जिसपर कर्मचारी तैनात किए गए हैं ताकि पानी बर्बाद न होे।
अशोक की मंशा हैं कि वर्षभर में झट्‌टीपुर राज्य की सबसे विकसित पंचायत बने।