Thursday 28 July 2016

तुलसी अब आंगन से निकल कर पहुंची खेतों में
किसानों को दी रही लाखों की कमाई


एक वह समय भी था जबकि तुलसी न केवल प्रत्येक परिवार के घर-आंगन में पाई जाती थी बल्कि पूजी भी जाती थी। इसका कारण था तुलसी के औषधीय गुण। तुलसी के नियमित सेवन से रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। आज बढ़ते हुए शहरीकरण और बिखरते परिवारों में न तो आंगन रहे हैं और न ही तुलसी। यह बात दूसरी है कि दवाई निर्माता कंपनियों ने आज तुलसी की मांग को कई गुणा बढ़ा दिया है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि तुलसी की खेती में कम लागत और श्रम से बड़ा लाभ लिया जा सकता है। यह बात आपको शायद हैरान कर रही होगी परंतु यह सच हैं। इसी वजह से जो किसान इसकी खेती कर रहे हैं वह मालामाल हो रहे हैं।
ऐसे ही एक किसान हैं अनोखीलाल पाटीदार (खाचरौद, उज्जैन)। पाटिदार की माने तो उन्होंने अपनी दस बीघा खेत पर तुलसी की खेती की। जहां उनकी दूसरी फसल सोयाबीन भारी वर्षा और खेतों में पानी भरने से खराब हो गई वहीं तुलसी को कोई हानि न हुई। जहां तक कीटों से बचाव की बात है तो औषधीय पौधा होने से वह भी नहीं होता। पाटीदार ने खरीफ के पिछले सीजन में भी तुलसी की खेती करते हुए दस बीघा जमीन में दस कि.ग्रा. तुलसी के बीज की बुवाई की थी।

पाटिदार का कहना है कि 10 कि.ग्रा. बीज का दाम तीन हजार रुपए, खाद पर दस हजार रुपए और अन्य खर्चों में दो हजार शामिल थे। जहां तक सिंचाई की बात है तो वह भी केवल एक बार ही करनी पड़ी। पिछले सीजन में लगभग 8 क्विंटल उपज हुई जिससे औसतन तीन लाख रुपए का लाभ हुआ। नीमच मंडी से तुलसी का बीज 30-40 हजार रुपए प्रति क्विंटल मिल जाता हैं। इस जिले में अन्य औषधीय पौधों की खेती भी की जाती है। इनमें अश्वगंधा की 102 हैक्टेयर, तुलसी की 30 हैक्टेयर, सफेद मूसली की 15 हैक्टेयर और इसबगोल की 20 हैक्टेयर आदि फसलों की खेती की जा रही है।

Tuesday 26 July 2016

हरियाणी किसान का कमाल-टमाटर की खेती से
6 महीने में कमाये 1 करोड़ रुपए 


खेती-किसानी को आज छोड़ने और कोसने वाले तो बहुत मिल जाएंगे लेकिन कुछ एक ऐसे भी हैं जोकि कृषि को बदलते परिवेश में ढालकर करोड़ों रुपए कमा रहे हैं। आज हम आपको ऐसे ही हैं एक हरियाणी किसान नरेश जाट से मिलने जा रहे हैं जिन्होंने कम पानी होने के बावजूद भी केवलारी विकासखंड के मुनगापार गांव के करीब टमाटर की उन्नत खेती के लिए न केवल हिम्मत दिखाई बल्कि बड़े पैमाने पर टमाटर की खेती करके छः माह में एक करोड़ रुपए से भी अधिक कमाई कर डाली, जोकि आसपास के किसानों के लिए प्रेरणास्रोत बन गया है। यही कारण है कि दूसरे किसान भी गेहूं, चना, सोयाबीन आदि फसलों के स्थान पर टमाटर की खेती करने लगे हैं। नरेश के खेतों में प्रतिदिन 50 श्रमिकों को रोजगार भी मिल रहा है।
नरेश की माने तो वह ढुल्लू चैधरी (केवलारी) की 48 एकड़ जमीन को ठेके पर लेकर पांच वर्षों से उसपर टमाटर की खेती कर रहे हैं। इस खेती में प्रति एकड़ एक लाख रुपए खर्च होते हैं परंतु छः महीने में टमाटर की खेती से एक करोड़ रुपए से भी अधिक का मुनाफा होता है। इससे प्रति एकड़ दो-ढाई लाख मिल जाते हैं। वह सब्जी चक्र में परिवर्तन के लिए अभी शिमला मिर्च एवं फूलगोभी भी लगना शुरू कर चुके है।

नरेश ने पानी की कमी से निपटने के लिए सिंचाई में ड्रिप पद्धति को अपनाया है। इस पद्धति में बूंद-बंूद पानी का उपयोग करके खेती की जाती है। नरेश का कहना है कि वह देशी किस्म का ही बीज लगाते हैं ताकि टमाटर जल्दी खराब न हों। इसकी मदद भी अधिक रहती है। एक एकड़ में 50 टन टमाटर होता है जिसको ट्रकों से नागपुर, जबलपुर एवं सिवनी भिजवाया जाता हैं। 

Saturday 23 July 2016

12वीं पास आकाश का देखे कमाल
दिल्ली के कृषि वैज्ञानिकों को सीखा रहा हैं-मल्टी लेयर फार्मिंग

मनुस्मृति में कहा गया कि विद्या यानी ज्ञान जिस किसी व्यक्ति से भी और जहां से भी मिले लेने में संकोच नहीं करना चाहिए। चूंकि ज्ञान से हम अपने जीवन को नई दिशा दे सकते हैं। इस कथन को चारितार्थ कर दिखाया है दिल्ली सरकार ने। दिल्ली सरकार ने 12वीं पास तिली वार्ड (सागर) निवासी आकाश चैरसिया की मल्टी लेयर फार्मिंग, ऑर्गनिक खेती और एग्रीकल्चर मैनेजमेंट संबंधी ज्ञान को बेहतरीन पाया है। यही कारण है कि दिल्ली सरकार ने निर्णय लिया है कि वह नर्सरियों, कृषि विज्ञान केंद्र तथा ईको क्लब में आकाश द्वारा बताई पद्धतियों से कृषि कराएगी।

गत पांच वर्षों से आकाश चैरसिया मल्टी लेयर फार्मिंग, नेचुरल फार्मिंग, एग्रीकल्चर मैनेजमेंट, बीड मैनेजमेंट, वाटर मैनेजमेंट, ऑर्गनिक खेती पर काम कर रहे हैं। आकाश की पद्धति से जैविक खेती करके अनेक किसानों ने खेती में 10 गुना अधिक तक लाभ कमाया है। जब यह जानकारी डॉ. एस.डी. सिंह (चीफ एक्जीक्यूटिव ऑफिसर, पार्क एंड गार्डन्स सोसायटी, डिपार्टमेंट ऑफ इंवायरमेंट, दिल्ली सरकार) तक पहुंची तो उन्होंने आकाश को बुलवाया। 12 जुलाई को दिल्ली सचिवालय में आकाश चैरसिया ने आई.ए.एस., आई.एफ.एस. एवं कृषि वैज्ञानिकों को प्रेजेंटेशन देकर कृषि पद्धतियां सिखाईं। आकाश की माने तो डॉ. सिंह का प्रेजेंटेशन के बाद कहना था कि आपने हमें महंगे पॉली हाउस का विकल्प भी दे दिया है। प्रभावित अधिकारीगण व्यावहारिक प्रशिक्षण लेने हेतु संभवतः जुलाई में सागर पहुंचेगे।

जहां तक मल्टी लेयर फार्मिंग की बात करें तो यह वह पद्धति है जिससे एक खेत में एक सीजन में एक साथ अनेक फसलें उगाई जा सकती हैं। आकाश अपने फॉर्म हाउस पर पांच लेयर तक की कृषि कर रहे हैं। जहां तक इसकी उपयोगिता की बात करें तो छोटे किसानों के लिए यह खेती बहुत लाभप्रद है।
आकाश ने पॉली हाउस का विकल्प तैयार करते हुए बांस और घासपूस से शेड तैयार किए हैं। इतना ही नहीं वह पोर्टेबल बेगों में गोबर एवं केंचुओं से खाद भी तैयार करते हैं। पेस्टीसाइड के विकल्प के रूप में वह गोबर तथा केंचुओं के शरीर से निकले 22 तरह के एंजाइम और 5 प्रकार के एसिड से अर्क तैयार करते हैं। आकाश गोबर में उपस्थित 16 सूक्ष्म तत्वों से मिट्टी का पूर्णतः प्राकृतिक आहार तैयार करते हैं। वहीं अंकुरण अवस्था से ही पौधे को सारे तत्व उपलब्ध करवाकर उनका कुपोषण दूर करते हैं।

आकाश का कहना है कि उनके टीकमगढ़ के एक मित्र द्वारा दिल्ली सरकार ने उनसे संपर्क किया। दिल्ली सरकार चाहती है कि दिल्ली के लगभग 1600 सरकारी स्कूलों में बनाए गए ईको क्लब को एग्रीकल्चर क्लब में बदलकर एग्रीकल्चर मॉडल तैयार किया जाए ताकि शिक्षकों और बच्चों को नेचुरल एग्रीकल्चर की ट्रेंनिग दी जा सके।

जहां आकाश की पारिवारिक पृष्ठभूमि की बात करें तो उनका परिवार पान की पुरातन खेती से जुड़ा है। डॉक्टर बनने का सपना लिए आकाश की रुचि खेती में रही। यही कारण है कि वे तीन एकड़ में एक फॉर्म हाउस बनाकर उसमें पौधों के कुपोषण को दूर करने की तकनीक विकसित करने में लग गए।

आकाश पूरे देश में 42 फॉर्म हाउस बनावा चुके हैं तथा लगभग 33 हजार किसानों को अपने फॉर्म हाउस में प्रशिक्षण दे चुके हैं। देश के प्रतिष्ठित 19 विश्वविद्यालयों जैसेकि बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, शंकराचार्य विश्वविद्यालय रायपुर, जवाहर लाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, सागर विश्वविद्यालय आदि में लेक्चर दे चुके हैं।

Thursday 21 July 2016

काॅरपोरेट नौकरी नहीं आई रास तो इन जनाब ने अपनाई खेती की राह
2 लाख रुपए महीने की नौकरी छोड़ खड़ी की 
2 करोड़ रुपए के टर्न ओवर वाली कंपनी


उत्तम खेती मध्यम बान, निषिद चाकरी भीख निदान। घाघ की यह कहावत बहुत पुरानी और प्रसिद्ध है जिसका अर्थ है कि खेती सबसे अच्छा कार्य है। व्यापार मध्यम है, नौकरी निषिद्ध है और भीख माँगना सबसे बुरा कार्य है। आज इस कहावत के उल्ट गांव के नवयुवक शहरों को पलायन करते जा रहे हैं। इससे गांवों एवं शहरों दोनों की स्थिति बदहाल होती जा रही है। पर इस दुःखद हालात में कुछ ऐसे अलबेले भी हैं जोकि बढ़िया नौकरी को लात मारकर धरती माँ की गोद में रहना पसंद करते हैं। आज हम आपको बिलासपुर के ऐसे ही एक मतलावे व्यक्ति सचिन काले से मिलवाने जा रहे हैं जोकि 24 लाख रुपए वार्षिक का पैकेज छोड़कर न केवल गांव लौटे बल्कि खेती करने का भी निर्णय लिया। इतना ही नहीं आजकल घाटे के सौदे के नाम से प्रसिद्ध इस खेती को वह न केवल काॅरपोरेट रूप दे रहे हैं बल्कि इससे लगभग 2 करोड़ रुपए सालाना का टर्न ओवर भी ले रहे हैं।

देश की प्रसिद्ध कंपनियों में नौकरी कर चुके सचिन काले बीई मैकेनिकल, एमबीए फाइनेंस, एलएलबी, इकॉनेमी और इंजीनियरिंग में पीएचडी हैं। है। लगभग 12 वर्षों तक नागपुर, पुणे, दिल्ली, बंबई में नौकरी कर चुके सचिन ने सबसे पहले पढ़ाई खत्म होते ही वर्ष 2003 में इंजीनियर की नौकरी से शुरुआत नागपुर स्थित कंपनी से की। कुछ महीनों बाद ही नए ऑफर के मिलने पर उन्होंने पुणे स्थित कंपनी को ज्वाइन कर लिया। यहां भी ज्यादा समय नहीं हुआ था कि एनटीपीसी सीपत में नौकरी निकली जिसका पेपर क्लियर होने पर वर्ष 2005 में उस नौकरी में लग गए। तीन वर्ष बाद यानि 2008 में काले एनटीपीसी की नौकरी छोड़कर पुणे चले गए जहां उन्हें 12 लाख रुपए वार्षिक पैकेज पर नौकरी मिल गई। वर्ष 2011 में दिल्ली स्थित कंपनी ने उन्हें 24 लाख रुपए सालाना पैकेज पर रखा। अब सचिन के पास आराम की हर चीज थी जैसेकि बढ़िया नौकरी, गाड़ी, बंगला और नौकर आदि पर। यहां भी तीन वर्ष तक ही नौकरी की और 2014 में वे अपने गांव आ पहुंचे। पिता (अशोक काले) ने उनसे पारिवारिक व्यवसाय में हाथ बांटने को कहा पर सचिन ने साफ कर दिया कि वे इसके लिए गांव नहीं आएं, वे खेती करेंगे।

आखिरकार 38 वर्षीय सचिन ने मेढ़पार में अपनी लगभग 20 एकड़ पुश्तैनी जमीन पर खुद ट्रैक्टर चलाकर खेत की जुताई की। खेती को कॉर्पोरेट का रूप देने के लिए इनोवेटिव एग्री लाइफ सॉल्यूशन प्राइवेट लिमिटेड नामक कंपनी बनाई जोकि न केवल इस खेती पर हुए खर्च का इंतजाम करती है बल्कि उसका हिसाब भी रखती है और इससे होने वाली आय में कंपनी का भी हिस्सा होता है। सचिन की माने तो गत वर्ष उनकी कंपनी का टर्न ओवर दो करोड़ रुपए तक पहुंच गया। यही कारण है कि सचिन से गांव के 70 किसान सलाह लेने आते हैं। किसानों को फाॅर्म पर बुलाकर बताया जाता है कि कैसे अलग-अलग भागों में सब्जी, धान, दाल आदि की खेती की जा सकती है। जब इन किसानों के खेतों में फसल अच्छी हुई तो देखते ही देखते दो वर्षों में 70 किसान उनसे जुड़ गए। सचिव की माने तो उन्हें इसके लिए प्रेरणा अपने दादा वसंतराव काले से मिली जोकि अक्सर कहा करते थे कि नौकरी में कुछ नहीं रखा है। सिर्फ पैसे कमाना ही जिंदगी नहीं है। समाज के लिए भी कुछ करना चाहिए। इससे प्रभावित होकर उन्होंने स्थानीय लोगों के लिए ताजी सब्जियां और आर्गेनिक उत्पाद  उगाने का मन बनाया।

Wednesday 20 July 2016

मेडिकल छात्र का देखें कमाल 
गर्म मौसम में भी उगा डाला केसर 
कमाई है लाख रुपए महीना


अब तक माना जाता रहा है कि केसर यानि क्रोकस साटिवस ठंडा, सूखा और धूप जलवायु पसंद फसल है तथा यह समुद्र स्तर से ऊपर 1500 से लेकर 2500 मीटर ऊंचाई में बढ़ता है। लेकिन इस मान्यता को अब 26 वर्ष के संदेश पाटिल ने बदल डाला है। संदेश ने ठंडे प्रदेश में होने वाली केसर को जलगांव (महाराष्ट्र) के गर्म क्षेत्र में उगाकर भूगोल को बदल डाला है।

हुआ यूं कि संदेश ने अपनी मेडिकल (बीएएमएस) पढ़ाई को बीच में ही छोड़कर जिद पकड़ ली कि वह अपने खेतों में केसर की खेती करेगे। इसी का नतीजा है कि केवल साढ़े पांच महीने में वह पांच लाख रुपए से अधिक लाभ कमा चुके हैं। यह बात दूसरी है कि इस काम को करने के लिए उन्हें अपने स्थानीय और परंपरागत फसल के तरीकों में बदलाव करना पड़ा। यह सब करने के लिए उन्होंने कृषि विशेषज्ञों एवं इंटरनेट से खेती की जानकारी ली।

केसर की खेती करने के पीछे एक कारण यह भी था कि जलगांव में केला एवं कपास आदि स्थानीय और परंपरागत फसलों की खेती होती थी जिससे किसानों को विशेष लाभ नहीं होता था। मजबूर होकर संदेश ने फसलों में नए तरीके के प्रयोग करने की ठानी। सबसे पहले संदेश ने मिट्टी की उर्वरक शक्ति का अध्ययन किया और फिर उसको बढ़ाकर कृषि पद्धति में नए प्रयोग करने की ठानी और राजस्थान में हो रही केसर की खेती की जानकारी इंटरनेट से प्राप्त की। जानकारी प्राप्त करके संदेश ने अपने परिवार को बताया। उनके पिता एवं चाचा इनके विरुद्ध थे पर वह उनकी जिद एवं लगन को देखकर बाद में राजी हो गए।

फिर क्या था संदेश ने पाली(राजस्थान) से 40 रुपए के हिसाब से 1.20 लाख रुपए के 3 हजार पौधे खरीदे और इन पौधों को उन्होंने अपनी आधा एकड़ जमीन में रोपा। फिर क्या था संदेश ने विशेष अमेरिकी क्षेत्रों और कश्मीर घाटी में होने वाली केसर की खेती को जलगांव में करने का जादू कर दिखाया है। सबसे बड़ी बात यह कि संदेश ने इस केसर की खेती में जैविक खाद का उपयोग किया। संदेश ने मई 2016 में 15.5 किलो केसर का उत्पादन किया जोकि 40 हजार रुपए किलो के हिसाब से बिका और उन्हें कुल 6.20 लाख रुपए मिले। पौध, बुआई, जुताई एवं खाद पर हुए खर्च को घटाकर उन्हे साढ़े पांच माह में लगभग पांच लाख रुपए का शुद्ध लाभ हुआ। इसी का नतीजा है कि केन्हाला, रावेर, निभोंरा, अमलनेर, अंतुर्की और मध्य प्रदेश के पलासुर गांवों के दस किसानों ने संदेश पाटिल से प्रेरणा लेकर केसर की खेती करने का निर्णय लिया है।

Saturday 16 July 2016

अब अक्टूबर से आप निकाल पाएंगे 
अपना ईपीएफ का पैसा वो भी आॅनलाइन 

डिजिटल इंडिया की प्रक्रिया तेजी से काम कर रही है। सरकारी और गैरसरकारी सभी जगह आॅनलाइन का टेªड जोर पकड़ता जा रहा है। इसी प्रक्रिया में, अब आपका ईपीएफ एकाउंट भी अक्टूबर 2016 से आॅनलाइन होने जा रहा है। इसके लिए एक विशेष प्रकार का साॅफ्टवेयर तैयार किया गया है जिसकी टेस्टिंग की जा रही है। डाॅ. वी.पी. ज्वाॅय (सेंट्रल प्रोविडेंट फंड कमिश्नर, ईपीएफ) की माने तो ईपीएफ एकाउंट होल्र्ड्स अक्टूबर से पीएफ विदड्राॅल के लिए आॅनलाइन आवेदन कर सकेंगे जिसके लिए अलग से एक साॅफ्टवेयर तैयार किया जा रहा है जिसकी जांच फाइनल स्टेज में है। इस कदम से ईपीएफ के 3.6 करोड़ सक्रिय सदस्यों को लाभ होगा।

फिलहाल आप मैनुअल तरीके से ईपीएफ निकाल सकते हैं। इसके लिए आवश्यक है कि आप कम से कम दो महीने तक बेरोजगार हों। फिर आपको ईपीएफ विभाग तक पहुंचाने के लिए अपने पुराने संस्थान को यूएएन नंबर के साथ फाॅर्म 10 सी और फाॅर्म-19 भरकर देना पड़ता है। पुराना संस्थान आपका सारा विवरण वेरिफाई करता है और उसके बाद फार्म को ईपीएफ कार्यालय को भेज देता है। इस प्रक्रिया में 15 दिन से लेकर एक माह तक का समय लगता है।

 डाॅ. वी.पी. ज्वाॅय (सेंट्रल प्रोविडेंट फंड कमिश्नर, ईपीएफ) का कहना है कि वर्तमान प्रक्रिया से हम 3-15 दिन में ईपीएफ विदड्राॅल कर देते हैं यद्यपि अगर फाॅर्म में गलती या अधूरी जानकारी होने पर इससे अधिक समय भी लग जाता है। साथ ही कर्मचारियों के काॅन्ट्रेक्ट पर काम करने और लगातार नौकरी बदलने से विदड्राॅल की दर अधिक है जबकि आॅनलाइन प्रक्रिया से कर्मचारियों को अनेक लाभ होंगे जैसेकिः

  • ईपीएफ सदस्य पैसा निकलवाने के लिए आॅनलाइन अप्लाई कर सकेंगे।
  • अपने पुराने संस्थान के चक्कर लगाने से छुटकारा मिलेगा।
  • चूंकि ईपीएफओ द्वारा पहले से ही सभी इम्प्लाॅयर्स के डिजिटल हस्ताक्षर लिए जा चुके हैं।
  • आॅनलाइन प्रक्रिया से सदस्य कुछ ही दिनों में पीएफ का पैसा निकाल पाएंगे।


Thursday 14 July 2016

कुछ लोग करते हैं वहीं जो कहता है दिल
एमबीए करके भी लगा रही है सड़क पर रेहड़ी 

किसी ने सच ही कहा है कि दिल से किया गया काम हमेशा अच्छे-से होता है। कुछ ही लोग ऐसे होते हैं जोकि अपने दिल की बात को मानते हुए वो कर गुजरते हैं जोकि दूसरों के लिए प्रेरणादायक बन जाता है। आज हम आपको ऐसी ही शख्सियत से मिलवा रहे हैं जोकि न केवल एमबीए पास है बल्कि रिलायंस जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में एचआर विभाग में काम करती थी। राधिका अरोड़ा ने इसके बावजूद भी मोहाली इंडस्ट्रियल एरिया, अंबाला (हरियाणा) में रेहड़ी पर ‘‘मां का प्यार फूड कोर्ट’’ खोला है।

राधिका की माने तो इतना पढ़ने लिखने के बावजूद भी इस काम को करने का कारण था-अच्छा खाना न मिलना। असल में हुआ यूं कि जब राधिका बीकॉम की शिक्षा के बाद एमबीए की पढ़ाई के लिए चंडीगढ़ गईं तो उन्हें पीजी में रहना पड़ा। इस दौरान राधिका को पेइंग गेस्ट का खाना अच्छा नहीं लगता था। वजह भोजन न तो ठीक से पका होता था और न ही उसमें घर के जैसा स्वाद होता था।

एमबीए के बाद नौकरी के दौरान भी राधिका की यह समस्या बरकरार रही। परेशान होकर उन्होंने निर्णय लिया कि  किसी दूसरे की नौकरी करने के स्थान पर ऐसा कोई अपना काम शुरू किया जाए जिससे आत्मसंतुष्टि के साथ-साथ रोजगार भी मिले। वैसे भी वह प्रायः अपनी मां द्वारा तैयार भोजन बहुत मिस करती थी। इसीलिए उन्होंने वर्किंग लोगों को घर जैसा खाना उपलब्ध करवाने के लिए यह काम शुरू किया।

राधिका का प्रयास रहता है कि उनकी रेहड़ी पर तैयार भोजन ग्राहक को घर जैसा भोजन ही लगे। भोजन में राजमा-चावल, कढ़ी चावल, दाल-चावल एवं रोटी सब्जी आदि सभी कुछ है जो एक घर में बनाया जाता है। प्रतिदिन एक से तीन बजे तक मोहाली के इंडस्ट्रियल एरिया में राधिका की रेहड़ी लगाती हैं। धीरे-धीरे इसकी लोकप्रियता बढ़ती जा रही है।

Friday 8 July 2016

तकनीकी युग का है यह कमाल 
आने वाले समय में इन रोजगारों में हो सकती है कटौती


हम बचपन से रोबोट के बारे में सुनते आ रहे हैं। अब विशेषज्ञों की माने तो यह रोबोट अब आने वाले समय में इंसानी रोजगार के लिए खतरा बन सकते हैं। यह बात इस वर्ष के आरंभ में दावोस में होने वाले वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम (डब्ल्यूइएफ) में भी कही गई थी कि रोबोट और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से आगामी पांच वर्षों में विश्व के 15 विकसित देशों में करीब 51 लाख नौकरियां कम हो सकती हैं। इस दौरान करीब 71 लाख नौकरियों के खत्म होने की आशा है, पर लगभग 20 लाख नई नौकरियां भी पैदा होगी, जिससे इन देशों में नौकरियों में होने वाला कुल नुकसान 51 लाख तक सीमित रहेगा। संयुक्त राष्ट्र के अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा भी पहले ही इस संदर्भ में चिंता जताई जा चुकी है कि वर्ष 2020 तक रोजगार के अवसरों में वैश्विक स्तर पर 110 लाख तक की कमी आ सकती है।

‘पर्सनल और स्ट्रेटजिक एग्जीक्यूटिव्स’ के वैश्विक सर्वेक्षण की माने तो रोजगार के अवसरों में होने वाली कमी के कारणों में से करीब दो-तिहाई ऑफिस व एडमिनिस्ट्रेटिव सेक्टर्स में स्मार्ट मशीनों से काम लेने के चलते है। बड़ी चिंता यह है कि ऑफिस के रोजमर्रा के कार्यों को निबटाने के लिए मशीनों का इस्तेमाल सबसे ज्यादा बढ़ेगा।
हाल ही में ऐसी ही कुछ चिंताएं अमेरिकी रिसर्च फर्म एचटीएस ने ने अपनी एक रिपोर्ट में जताते हुए कहा है कि 37 लाख लोगों को नौकरी देने वाला भारतीय आईटी सेक्टर अगले 5 वर्षों में 6.4 लाख नौकरियां खो सकता है जिसका कारण आने वाली नई-नई तकनीकें हो सकती हैं। विशेषज्ञें की माने तो तकनीक द्वारा बेरोजगारी का असर आईटी सैक्टर के साथ-साथ कई क्षेत्रों में भी पड़ेगा जिससे नौकरियों की कमी होगी। चलिए जानते हैं यह प्रभाव कैसा होगाः

1. हमारा देश कृषि प्रधान है। इसलिए इस क्षेत्र का प्रभावित होना तय है। वैसे भी लेबर निरंतर महंगी होती जा रही है। ऐसे में विशेषज्ञों की माने तो आगामी वर्षों में खेती पूर्णतः स्वचालित मशीनों पर आधारित होगी जिससे लाखों लोगों की आजीविका प्रभावित होगी।

2. प्रत्येक वर्ग आज चाहता है कि उसके बच्चे अच्छा से अच्छा पढ़े, शिक्षित हों। इसके लिए अच्छा स्कूल, शिक्षा, ट्यूशन और कोचिंग की व्यवस्था की जाती है। पर इस क्षेत्र में भी तकनीक ने कमाल दिखाना शुरू कर दिया है कंप्यूटर बेवसाइट और मोबाइल ऐप्स ने शिक्षा सैक्टर को नया आयाम दिया है। इससे जहां एक ओर अध्यापकों की भूमिका कम हुई है वहीं ऑनलाइन कोर्सेज के बढ़ते चलन से स्कूलों एवं कॉलेजों की जरूरत पर भी प्रश्न चिह्न खड़े हुए हैं।

3. तकनीक के प्रयोग से मीडिया सैक्टर काफी नया कर पाया है। सीधा प्रसारण हो या फिर देश-विदेश की घटनाओं का तुरंत प्रसारण सहज हो गया है। विशेषज्ञों की माने तो आगामी वर्षों में इस सैक्टर में भी रिपोर्टरों के लिए भी मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। चूंकि इनका स्थान स्वचालित उपकरणों ले सकते हैं। जहां तक प्रिंट मीडिया की बात है तो डिजिटल मीडिया के आने के बाद से उन्हें वैसे ही विज्ञापनों की बहुत कमी हो रही है। इससे समाचार-पत्रों की आमदनी कम हो रही है और उनको बने रहने में कठिनाई अनुभव हो रही है।
4. विशेषज्ञों की माने तो रोबॉट का सबसे अधिक बुरा असर फैक्ट्री/कारखानों पर होगा। चूंकि आने वाले समय में जापान की तर्ज पर ही पूरे संसार में रोबोट का प्रयोग बढ़ेगा जोकि इस सैक्टर में रोजगार को भी प्रभावित करेगा।

5. एक्सपर्ट का कहना है कि स्वास्थ्य सेवाओं में आगामी वर्षों में स्वचालित यंत्रों का उपयोग बढ़ेगा। इससे जहां एक ओर गुणवत्ता में सुधार आएगा तो वहीं दूसरी ओर इस क्षेत्र के कर्मचारियों के लिए मुश्किल पैदा होगी।

6. कानूनी क्षेत्र में भी जो काम जूनियर वकीलों करते हैं जैसेकि केस पर रिसर्च और कानूनी दस्तावेजों पूर्ति आदि उस सैक्टर में भी लीगल एंड जूम नामक सॉफ्टवेयर आ चुका है जोकि जूनियर वकीलों का काम फटाफट और सरलता से करता है।
7. बीपीओ सैक्टर में भी IPsoft's एवं VPI's आदि कृत्रिम कॉल सेंटर एजेंट्स आने से इसमें भी ऑटोमेशन का समय कठिनाई वाला हो सकता है।
8. सेल्फ-सर्विस चैक आउट तकनीक ने पूरे संसार को अपनी पकड़ में ले लिया है। इसीलिए वर्ष 2011 में मैकडॉनल्ड्स द्वारा भी 7000 स्वचालित कैशियर्स का ऑर्डर दिया। इस तकनीक से आगामी वर्षों में स्टोर्स एवं सुपरमार्केटों में शायद ही कोई कैशियर दिखेगा।

9. विशेषज्ञों की माने तो बिना ड्राइवर की कारें सुरक्षा की दृष्टि अच्छी हो सकती हैं, अमेरिका में तो यह कारें काफी समय पहले से ही आ चुकी हैं। डेल्फी, टेस्ला एवं गूगल आदि कंपनियां अभी भी अस क्षेत्र में काम कर रही हैं जोकि ड्राइवर की नौकरियों को खत्म कर सकता है।
10. संसार की अनेक कंपनियां अपने उत्पादों की गुणवत्ता जांचने का काम स्वचलित मशीनों द्वारा करती जा रही हैं चूंकि इससे जहां एक ओर कम समय लगता है तो परिणाम भी अधिक सटीक आते हैं।

Thursday 7 July 2016

आयुर्वेद और हर्बल की ओर बढ़ रहा है रुझान
देसी कंपनियांे ने बजाया विदेशी ब्राॅन्ड्स का बैंड 


कभी दादी-नानी की पिटारी, रसोईघर में मिलने वाले साधारण बीमारियों से छुटकारे के नुस्खे, गोली-वटी और चूर्ण की विद्या माना जाने वाले आयुर्वेद को हमारे समाज ने भुलाने का काम किया है और हम अपनी घरेलू चिकित्सा पद्धति से दूर होते चले गए। पर आज स्थिति पलट रही है धीरे-धीरे आयुर्वेदिक और हर्बल विद्या देश-विदेश को अपने पकड़ में लेती जा रही है। या यूं कहे तो गलत नहीं होगा कि अब यह हमारे दैनिक जीवन का अंग बन चुका है। यही वजह है कि प्राकृतिक, आयुर्वेदिक और हर्बल के दम पर डाॅबर, इमामी और मैरिको आदि एफएमसीजी कंपनियों के अलावा भी पंतजलि और श्री श्री रवि शंकर की फर्म जैसी देसी कपंनियां शैंपू, टूथपेस्ट, हेयर आॅयल, बिस्कुट और नूडल्स आदि उत्पादों में विदेशी ब्राॅन्ड्स (हिंदुस्तान यूनिलीवर, प्राॅक्टर एंड गैंबल आदि) पर अच्छी खासी बढ़त बनाएं हुए हैं।

अगर बात करें 2015-मई 2016 की अवधि की तो डाॅबर (बबूल, मिस्वाॅक, रेड टूथपेस्ट और टूथ पाउडर) और पंतजलि (दंत कांति) ने बाजार में अपनी हिस्सेदारी तेजी से बढ़ाई तो पेप्सोडेंट और क्लोज अप बनाने वाली हिंदुस्तान यूनिलीवर के शेयर 22.4 से लुढ़ककर 20.6 पर आ गिरे। वहीं शैंपू में प्राॅक्टर एंड गैंबल (हेड एंड शोल्डर्स व पैंटीन शैंपू) के शेयर 27.2 से 24.9 प्रतिशत पर आ गए, तो पतंजलि (कैश कांति) की भागीदारी दुगुनी यानी 0.8-1.8 प्रतिशत पर पहुंच गई। इसी तरह मेरिको (पैराशूट व हेयर एंड केयर आॅयल) के वैल्यू शेयर गत वर्ष मई से इस साल तक 36 से 40 प्रतिशत तक पहुंच गए।

आईएमआरबी कैंटार (रिसर्च फर्म) की ब्राॅन्ड फुटप्रिंट नामक गत माह जारी रिपोर्ट में कहा गया कि सर्वाधिक पसंदीदा उपभोक्ता ब्राॅन्ड्स की वार्षिक रैकिंग में भारतीय कंज्यूमर्स डोमेस्टिक ब्राॅन्ड्स को सबसे अधिक पसंद कर रहे हैं और इन ब्र्र्र्र्राॅन्ड्स की पहुंच भी मल्टीनेशनल कंपनियों के ब्राॅन्डस से ज्यादा है।

उपभोक्ता उत्पाद क्षेत्र में आयुर्वेद के बढ़ते महत्व को लेकर आनंद बर्मन (चेयरमैन, डाॅबर इंडिया) ने 2015-16 की वार्षिक रिपोर्ट में शेयरहोल्डर्स को जानकारी देते हुए कहा कि कंज्यूमर सेक्टर में प्राकृतिक, आयुर्वेदिक और हर्बल उत्पाद का ट्रेंड बढ़ रहा है। पहले से हर्बल उत्पाद और मजबूत आरएंडडी रखने वाली कंपनियों को इससे बहुत लाभ होने की संभावना है। डाॅबर को इसका काफी लाभ होगा।

चलिए आपको आयुर्वेद एवं हर्बल से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातों की जानकारी दिए देते हैं, जिसे जानकर आप हैरान रह जाएंगेः

1. विश्व में हर्बल दवाओं का व्यवसाय लगभग 62 बिलियन डॉलर है जबकि इसमें भारत हिस्सेदारी केवल एक बिलियन डॉलर की है। ‘स्लाइडशेयर डॉट नेट’ की रिपोर्ट को माने तो हर्बल मार्केट में सबसे बड़ा योगदान (लगभग 45 प्रतिशत) यूरोपियन यूनियन का है। इसमें  उत्तरी अमेरिका का 11 प्रतिशत, जापान का 16 प्रतिशत और आसियान देशों का 19 प्रतिशत योगदान है।

2. ‘एकेडमिक जर्नल ऑफ प्लांट साइंसेज’ की रिपोर्ट बताती है कि हर्बल मेडिसिन की बिक्री में विश्व में प्रतिवर्ष औसतन 6.4 प्रतिशत की दर से वृद्धि हो रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी हर्बल मेडिसिन के बढ़ते दायरे को रेखांकित किया है।
3. वैश्विक स्तर पर हर्बल उत्पादों का सबसे बड़ा बाजार यूरोप है जबकि फ्रांस, जर्मनी, इटली व नीदरलैंड आदि देशों को हमारे देश से बड़ी संख्या में यह उत्पाद निर्यात किये जाते हैं।
4. हमारा देश विश्व में औषधीय उत्पादों का सबसे बड़ा उत्पादक देश है इसीलिए इसे ‘बोटेनिकल गार्डेन ऑफ द वर्ल्ड’ अर्थात् ‘विश्व का वनस्पति उद्यान’ भी कहा जाता है।

5. भारत में आयुर्वेद का भविष्य इसलिए भी उज्ज्वल माना जा रहा है, क्योंकि औषधीय गुणों से भरपूर करीब 25 हजार पौधों में से महज 10 फीसदी को ही औषधीय कार्यो के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है।
5. भारत की गिनती विश्व के 12 मेगा बायोडायवर्स देशों में होती है।

6. हर्बल जानकारों की माने तो 2050 तक हर्बल का वैश्विक व्यवसाय पांच खरब डॉलर तक पहुंच सकता है।
7. विशेषज्ञों की माने तो आने वाले समय में इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी के बाद हर्बल टेक्नोलॉजी से भारत को सबसे अधिक आमदनी होगी।
8. शीतल वर्मा और एस पी सिंह (डिपार्टमेंट ऑफ फार्माकोलॉजी एंड टोक्सिकोलॉजी, कॉलेज ऑफ वेटरेनरी एंड एनिमल साइंस, पंतनगर) की ‘करेंट एंड फ्यूचर स्टेटस ऑफ हर्बल मेडिसिन’ शोध रिपोर्ट की माने तो पश्चिमी देशों में लोग कृत्रिम दवाओं की क्षमता एवं उसके साइड इफेक्ट से भली-भांति परिचित हैं। इसलिए इन देशों में प्रकृति और प्राकृतिक दवाओं की ओर लोगों का रुझान बढ़ रहा है।

Wednesday 6 July 2016

देशज नस्लों को बढ़ावा देने की सरकार है तैयारी
गायों को भी जारी किया जाएगा आधार और स्वास्थ्य काॅर्ड


किसी ने सत्य ही कहा है कि घर की मुर्गी दाल के जैसी होती है। इसी कहावत की तर्ज पर हमने भी अपनी देशज़ नस्ल की गायों को नकार सा दिया है जबकि ब्राजील में भारतीय नस्ल की गिर गाय से लगभग 80 फीसदी उत्पादन लिया जाता है यही कारण है कि आज ब्राजील दुग्ध उत्पादन में बड़ा नाम बन चुका है।

हमारे देश में भी दुग्ध उत्पादन को 2020-21 तक 8.7 करोड़ टन करने के लक्ष्य को ध्यान में रखकर देसी नस्ल की गायों को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार का पशुपालन विभाग बड़े स्तर पर एक कार्यक्रम शुरू करने की योजना बना रहा है। इसके अंतर्गत देश की 8.5 करोड़ गायों को काॅर्ड जारी किए जाएंगे। इसमें 70 प्रतिशत गाय देशज़ होंगी। यह कार्य-योजना केंद्र सरकार राज्य सरकारों के साथ मिलकर चलाएगी। इसमें 2016-17 में लगभग 50 लाख गायों की टैगिंग कर आधार काॅर्ड जारी किया जाएगा तो 2017-18 में 2.5-3.0 करोड़ गायों का आधार जारी होगा। शेष आधार काॅर्ड 2019-2020 में जारी किए जाएंगे। इस योजना का लक्ष्य हैः

1. देसी भारतीय नस्ल की गाय का संरक्षण
2. अगले पांच वर्षों में देशज़ गायों के दुग्ध उत्पादन को वर्तमान उत्पादन से लगभग दुगना करना
3. नस्ल में सुधार करना

उपर्युक्त लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सरकार गायों के लिए आधार काॅर्ड और एक स्वास्थ्य काॅर्ड जारी करेगी।

इसमें गाय की दूध की मात्रा, दूध की गुणवत्ता यानि क्वालिटी और बीमारी से जुड़े विवरण होंगे।


वैसे इससे पहले भी लगभग 10 लाख गायों को टैग जारी किए जा चुके हैं। वर्तमान में देसी गायों का दुग्ध उत्पादन काफी कम (लगभग 1-2 लीटर है) जिसे बढ़ाकर सरकार पांच लीटर तक पहुंचाना चाहती है। अभी उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में सबसे अधिक देशी गायें हैं। जहां तक उत्पादन की बात है तो 2007-2008 में देशज़ नस्ल से लगभग 2.2 करोड़ टन दूध उत्पादन होता था।