Thursday 28 January 2016

पर्यावरण बचा पाएं,
तो जी पाएंगे हम

आधुनिक दिखने व सुख-सुविधाएं जुटाने में हमने प्रकृति को इस कदर लहूलुहान कर दिया है कि आज मानव जाति ही नहीं कृषि व पशुपालन का अस्तित्व भी खतरे में आ पड़ा है। एक अनुमान के हिसाब से सन् 2100 तक पृथ्वी का तापमान 1.4-5.8 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा जिससे खेती व पशुपालन को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। चूंकि जलवायु, कृषि व पशुपालन की समस्याओं के समाधान के बिना पर्यावरण संरक्षण की बात अधूरी-सी लगती है। विशेषज्ञों की माने तो विश्व में प्रचलित कृषि पद्धतियां सही नहीं हैं। यदि हम अभी भी नहीं जागे तो भविष्य में खाद्यान्न का महासंकट या खाद्य उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हो सकता है।

एक अध्ययन की माने तो हमारी आंखें खुली की खुली रह जाएगी। इसमें कहा गया है कि गत 40 वर्षों में दुनिया की एक तिहाई यानी 33 प्रतिशत खेती योग्य जमीन खत्म या प्रर्दूिषत हो चुकी है। कृषि में जमीन का अंधाधुंध उपयोग करने के कारण ही फसली धरती की लाभप्रदता प्रभावित हो रही है। डाॅ. कैमरन (वनस्पति और मिट्टी विज्ञानी, यूनिवर्सिटी आॅफ शेफील्ड, ब्रिटेन) की माने तो कृषि की जमीन में मिट्टी क्षरण की दर मिट्टी बनने की दर की अपेक्षा 10 से 100 गुना अधिक है। हम मिट्टी के खराब होने की दर को बढ़ा रहे हैं और मिट्टी से जरूरी खनिज पोषकों की मात्रा घटा रहे हैं। हम ऐसी मिट्टी तैयार कर रहे हैं जो किसी काम की नहीं है केवल धरती को ढककर रखने के लिए है। आपको जानकर हैरानी होगी कि सामान्य कृषि परिस्थितियों में मिट्टी की सबसे ऊपर की परत बनने में करीब 500 वर्ष लगते हैं।

जहां एक ओर पर्यावरण और जलवायु को प्रभावित करने वाली ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में कृषि का 24 प्रतिशत योगदान है तो वहीं दूसरी ओर विश्व में जंगलों के विनाश का मुख्य कारण खेती है। खेती से पर्यावरण में अतिरिक्त कार्बन डाइआक्साइड फैलती है। कृषि में लगातार अनियंत्रित कीटनाशक व उर्वरकों के उपयोग से भूमि व भूगत जल जहरीले होते जा रहे हैं। मिट्टी व खाद्यान्न उत्पादकता दूषित हो रही है।

गत वर्ष पेरिस जलवायु सम्मेलन में रख गई रिपोर्ट की माने तो अफ्रीका व दक्षिण एशिया में फसल और पशुधन उत्पादकता पर जलवायु परिवर्तन का असर अधिक होगा। दक्षिण एशिया में भारत भी है। 21वी सदी की बाद वाली आधी अवधि यानि वर्ष 2060 के बाद हालात विकट होंगे। अमेरिका में जलवायु परिवर्तन का खाद्य उत्पादकों पर असर होगा। अमेरिका से खाद्य निर्यात की मांग बढ़ेगी। इससे मांग के अनुरूप उत्पादन कठिन हो जाएगा। जलवायु परिवर्तन का जोखिम कृषि उत्पादन से आगे के तत्वों पर भी पड़ने की आशंका है। यानी प्रसंस्करण, भंडारण, परिवहन और खपत समेत वैश्विक खाद्य प्रणालियों के महत्वपूर्ण किरदारों पर इसका असर होगा। उदाहरण के लिए अधिक तापमान से खाद्य भंडारण घट सकता है। इसका असर खाद्य सुरक्षा पर पड़ेगा। समुद्र का जल स्तर बढ़ सकता है।

खाद्य और जलवायु सुरक्षा का आधार है-मिट्टी। यह व्यापक रूप से कार्बन को अपने में समा सकती है और वातावरण में फैलने से रूक सकती हैै। जहां कार्बन तापमान को बढ़ाने का एक साधन है तो वहीं मिट्टी में कार्बन का 1000 में चैथा अंश भी बढ़ता है तो इससे मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ेगी, जीवन में सुधार आएगा, किसानों का खेती से दूर होना रूकेगा व टिकाऊ खेती को बढ़ावा मिलेगा।

इसी प्रकार जलवायु परिवर्तन पशुधन उत्पादन के लिए नई-नई चुनौतियां बन रहा है। आंकड़ों की माने तो पिछले तीन दशकों में गर्मी अधिक हुई है। 1950 के बाद देश में अधिकतम और न्यूनतम तापमान लगभग एक वैश्विक स्तर पर बढ़ गया है। यहां तक कि नाबार्ड जैसा संस्थान अपने बजट का तीस प्रतिशत भाग जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में खर्च करता है। 

डाॅ. ए.के. श्रीवास्तव (निदेशक, एनडीआरआई) की माने तो भारत की अधिकांश जनसंख्या पशुधन व कृषि पर निर्भर है। देश में इस समय 191 मिलियन गाय और 109 मिलियन भैंस हैं। ग्रीनहाउस गैस के कारण पर्यावरण परिवर्तन हो रहा है। 28 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैस कृषि से पैदा होती है और कृषि में 60 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैस जानवरों के खाने पचाने की क्रिया से पैदा होती है। शोध से पता चला है कि देशी नस्ल की गाय संकर नस्ल की गाय की अपेक्षा आधा मीथेन पैदा गैस करती है। भूमंडलीय सतह के पास का तापमान 19वीं सदी के बाद से बढ़ गया है। अगर ऐसे ही तापमान में वृद्धि होती रही तो भारत के अधिकांश हिस्से में जानवरों के शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। इससे दूध, मांस, अंडा उत्पादन और प्रजनन प्रभावित होगा। भारत में लगभग 70 प्रतिशत पशुधन सीमांत किसानों और भूमिहीन मजदूरों के स्वामित्व में है। नई तकनीकों के प्रति जागरूकता न होने व वित्तीय साधनों की कमी के चलते पशुधन खतरे में है। तापमान वृद्धि से भारत में वर्ष 2050 में कुल दूध उत्पादन का 15 मिलियन टन से अधिक का नुकसान होने का अनुमान लगाया गया है। तापमान में 1-2 डिग्री वृद्धि होने पर केवल दूध पर ही असर पड़ेगा पर अगर इससे अधिक तापमान बढ़ेगा तो प्रजनन पर भी इसका असर देखने को मिलेगा। पेरिस सम्मेलन में इन समस्याओं के लिए कुछ उपाय रखें गए यद्यपि इससे समस्या हल नहीं होगी पर निश्चित रूप यह सही दिशा में है।