देश के 10 राज्यों में चाव से खाए जाते हैं कीड़े
भविष्य में है अच्छी व्यावसायिक संभावनाएं

भारत में कीड़े खाना नई बात नहीं है। मध्य प्रदेश, उड़ीसा, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, मेघालय, नागालैंड, असम, मणिपुर एवं अरुणाचल प्रदेश में कीड़े खाएं जाते हैं। उत्तर पूर्वी भारतीय राज्यों में कीड़ों को सबसे अधिक खाया जाता है। अरुणाचल प्रदेश में 158 प्रजातियां खाई जाती हैं। प्रदेश की निशी और गालो जनजातियां कीड़ों की लगभग 102 प्रजातियां खाती हैं। रायगढ़ (उड़ीसा) के कोंध और सोरा जनजाति खजूरी पोका (डेट पॉम वर्म) बड़े चाव से खाती है। यह लाल चींटियों के अंडे (कइओंडा) भी खाते हैं। नागालैंड में भी लीपा के नामक प्रसिद्ध घुन (वुडवर्म) को ओक के पेड़ों से निकालकर खाया जाता है। मुरिया जनजाति (मध्य प्रदेश) चिनकारा नामक चीटियों की प्रजातियों का लार्वा खाती है। कर्नाटक के कुछ गांवों में रानी दीमक शारीरिक रूप से कमजोर बच्चों को जिंदा खिलाई जाती है। संयुक्त राष्ट्र के फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन (एफओए) द्वारा प्रकाशित “ईडेबल इंसेक्ट्स: फ्यूचर प्रोस्पेक्ट्स फॉर फूड एंड फीड सिक्योरिटी” (2013 ) के लेखक पॉल वान्टोम का कहना है कि विश्व में लगभग 200 करोड़ लोग कीड़े खाते हैं। ये कीड़े मुर्गों, मछलियों एवं सूअरों का प्राकृतिक आहार भी हैं। विश्वस्तर पर कीड़ों की 1,900 से अधिक प्रजातियां खाई जाती हैं। भारत में आदिवासी समुदाय 303 कीड़ों की प्रजातियों को खाते हैं।

वर्तमान जलवायु परिवर्तन के युग में आहार के रूप में कीड़ों पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। चूंकि इस आहार में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने की क्षमता है। संयुक्त राष्ट्र की स्पेशल रिपोर्ट ऑन क्लाइमेट चेंज एंड लैंड (अगस्त, 2019) में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के लिए उत्तरदायी कार्बन डाईऑक्साइड को कम करने हेतु मांसाहार से शाकाहार की ओर जाना होगा। इसमें यह भी कहा गया है कि कीड़े, मांस का अच्छा विकल्प हैं और ये पर्यावरण अनुकूल भी हैं। एफएओ रिपोर्ट की माने तो अगले तीन दशकों में 900 करोड़ होने वाली आबादी को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने में कीड़े महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे।
कीड़ों से मिलने वाले पोषक तत्वों को देखते हुए इनका व्यावसायिक महत्व बढ़ रहा है। भोजन के रूप में कीड़ों को प्रोत्साहित करने के तीन प्रमुख कारण हैं-पहला ये पर्यावरण के अनुकूल होते हैं, दूसरा पोषण गुण और तीसरा जीवनयापन के अवसर उपलब्ध कराने के कारण। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट की माने तो कीड़ों की अपेक्षा बीफ के एक ग्राम प्रोटीन के लिए 14 गुणा अधिक भूमि और 5 गुणा अधिक पानी की जरूरत होती है। इतना ही नहीं, परंपरागत मवेशियों की तुलना में कीड़ों से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन भी कम होता है। उदाहरणतः प्रति किलो मीलवर्म कीड़े के मुकाबले सूअर 10-100 गुणा अधिक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जित करते हैं। कीड़ों और बीफ से प्राप्त होने वाले प्रोटीन का तुलनात्मक अध्ययन करें, तो हम पाएंगे कि एक किलो झींगुर (क्रिकेट) में 205 ग्राम प्रोटीन और 68 ग्राम वसा होता है, जबकि बीफ में 256 ग्राम प्रोटीन और 187 ग्राम वसा मिलता है। झींगुर कैल्शियम, दीमक (टरमाइट) आयरन और रेशम कीट (सिल्कवर्म मोठ लार्वा) कॉपर एवं राइबोफ्लेविन की जरूरतों को पूरा करते हैं।

वित्तीय कंसलटेंसी कंपनी ग्लोबल मार्केट इनसाइट्स के अनुसार, 2015 में खा सकने वाले कीड़ों का बाजार 33 मिलियन डॉलर था, जो 40 प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ रहा है। परसिस्टेंस मार्केट रिसर्च के अनुसार, 2024 तक यह बाजार 700 मिलियन अमेरिकी डॉलर हो जाएगा। भारत जैसे देशों में खा सकने वाले कीड़ों के व्यवसाय की अत्यधिक संभावनाएं हैं, क्योंकि यहां मधुमक्खी और रेशम कीट काफी समय से पाले जा रहे हैं। हालांकि भारत में अभी कीड़ों का व्यवस्थित बाजार विकसित नहीं हुआ है, परन्तु स्थानीय स्तर पर कहीं-कहीं इनकी बिक्री होती है। उदाहरणतः नागालैंड के चिजामी गांव में दीमक का एक लार्वा 10-15 रुपए में बेचा जाता है। कोहिमा के बाजार में यह 40-50 रुपए में मिलता है। इसी तरह असम में रेशम का कीट 600-700 रुपए और लाल चींटियां 1000-1,500 रुपए प्रति किलो की दर से बिकती हैं।
दूसरी ओर, यह भी सच है कि भारत में कीड़ों के प्रति लोगों का रूढ़िवादी नजरिया इसके व्यापार में बड़ी बाधा है, जिसको बदलना एक बड़ी चुनौती है। ब्रिटेन में इसकी शुरुआत हो चुकी है। औद्योगिक समूह एग्रीकल्चर बायोटेक काउंसिल के हालिया अध्ययन में सामने आया कि एक तिहाई अंग्रेज मानते हैं कि वे 2029 तक कीड़े खाने लगेंगे।
जर्नल ऑफ बायोडायवर्सिटी, बायो प्रोस्पेक्टिंग एंड डेवलपमेंट में 2014 में प्रकाशित झरना चक्रवर्ती के अध्ययन से पता चलता है कि कीटों का संग्रहण करके न केवल फसलों को हानि से बचाया जा सकता है, वरन कीटनाशकों का उपयोग भी सीमित किया जा सकता है। फसलों पर हमला करने वाले कीट भले ही आहार के रूप में इस्तेमाल न किए जाए, परंतु ये पशुओं का पूरक आहार हो सकते हैं। पोषण तत्वों से भरपूर इन कीड़ों को आधुनिक उपकरणों और तकनीक की सहायता से घर के बगीचों में पाला जा सकता है। इसके बाद ये कीड़े जरूरतमंदों को बेचे जा सकते हैं, जिससे एक ओर ये लोगों के भोजन में शामिल होंगे और दूसरे इनके संरक्षण को भी बल मिलेगा।
डेविड ग्रेसर (अध्यक्ष, स्मॉल स्टॉक फूड स्ट्रेटजीज, अमेरिका) के अनुसार, कीड़ों को पालना गरीबों के जीवनयापन का अच्छा जरिया हो सकता है। शहरी कृषि कीड़ों से प्राप्त होने वाले प्रोटीन के उत्पादन का प्रभावी तरीका हो सकता है। औद्योगिक स्तर पर कीड़ों की खेती भी संभाव्य है, खासकर उन शहरों में जहां परंपरागत खेती मुश्किल है (कीड़ों में हैं व्यावसायिक संभावनाएं)।
प्रोफेसर ए वैन ह्यूस (ट्रॉपिकल एंटोमोलॉजी, वागनिगन यूनिवर्सिटी, नीदरलैंड्स) कहते हैं, इस उद्योग में निरंतर नए-नए स्टार्टअप सामने आ रहे हैं। इनमें से कुछ भारी लाभ भी कमा रहे हैं, जिससे पता चलता है कि निवेशकों को इसमें व्यापार की संभावनाएं नजर आ रही हैं।
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