गुरुवार, 28 नवंबर 2019

आज का विचार  

कामयाब होने वाले इंसान 
हमेशा खुश रहते हैं 

और जो खुश रहते हैं 
वही कामयाब होते हैं
आज का विचार

शत्रु को सदैव भ्रम में रखना चाहिए
जो उसका अप्रिय करना चाहते हो 
तो उसके साथ सदा मधुर व्यवहार करो, 
उसके साथ मीठा बोलो 
शिकारी जब हिरण का शिकार करता है 
तो मधुर गीत गाकर उसे रिझाता है, 
और जब वह निकट आ जाता है, 
तब वह उसे पकड लेता है

बुधवार, 27 नवंबर 2019

आज का विचार 

विद्या के अलंकार से अलंकृत होने पर भी 
दुर्जन से दूर ही रहना चाहिए

क्योंकि मणि से भूषित होने पर भी 
क्या सर्प भयंकर नहीं होता

शुक्रवार, 22 नवंबर 2019

चावल में वृद्धि कर सकता है कैंसरकारी आर्सेनिक, 

घटेगा 40 प्रतिशत उत्पादन


आप चावल अथवा चावल के व्यंजन के शौकीन हैं, तो शीघ्र ही अपनी खाने की आदत बदलने के लिए तैयार रहे। अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के नए अध्ययन के मुताबिक जलवायु में परिवर्तन और मिट्टी में बढ़ते आर्सेनिक से विश्व में चावल की खेती तेजी से गिर सकती है। इससे खाद्य असुरक्षा का खतरा बढ़ सकता है। इस शताब्दी के अंत तक चावल की पैदावार करीब 40 प्रतिशत कम हो जाएगी ।


तापमान में वृद्धि से मृदा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है और उसमें आर्सेनिक की मात्रा बढ़ रही है। एक अनुमान है कि आज की अपेक्षा इस सदी के अंत तक चावल में मौजूद आर्सेनिक में दोगुनी वृद्धि होगी। आर्सेनिक मानव स्वास्थ्य हेतु हानिकारक है। आज कई खाद्य फसलों में कुछ मात्रा में आर्सेनिक होता है। वैज्ञानिकों का मत है कि जरुरी नहीं कि इन कारकों का असर सभी फसलों और पौधों पर एक जैसा हो। आर्सेनिक प्राकृतिक सेमी-मेटालिक केमिकल है, जो अधिकांश मिट्टी और अवसादों में मिलता है, पर सामान्यतः यह पौधों द्वारा अवशोषित नहीं किया जाता। इसके लगातार संपर्क में रहने से त्वचा पर घाव, कैंसर एवं फेफड़ों के रोग बढ़ जाते हैं, जिससे अंततः मृत्यु भी हो सकती है। अतः एक नए अध्ययन में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के चलते चावल का उत्पादन घट जाएगा, जबकि मिट्टी में आर्सेनिक की मात्रा बढ़ने से चावल खाना शरीर के लिए नुकसानदायक साबित होगा।  


आज का विचार    

 लाइफ में अगर आप किसी चीज में फ़ैल हो जाते हो 
तो वह आपका पूरा failure नहीं है 
बल्कि आपकी लाइफ के एक हिस्से में फेलियर है

गुरुवार, 21 नवंबर 2019

4000 साल से हो रहा है मिट्टी का कटाव 

अब आने शुरू हो गए हैं दुष्परिणाम

झील के तलछट को मृदा अपरदन गतिविधियों का प्राकृतिक अभिलेखागार माना जा सकता है। मिट्टी का कटाव पारिस्थितिक तंत्र की उत्पादकता को कम करके प्राकृतिक पोषक तत्वों के आदान प्रदान क्रिया में भी बदलाव लाता है, जिससे जलवायु एवं समाज प्रभावित होता है। 


शोधकर्ताओं ने पाया कि मनुष्यों द्वारा किये जा रहे कार्यों और भूमि उपयोग में होने वाले परिवर्तनों ने औद्योगिकीकरण से बहुत पहले ही मिट्टी के कटाव को तेज कर दिया था। भूविज्ञानी जीन-फिलिप जेनी (मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट) की माने तो साल दर साल मिट्टी और चट्टान के टुकड़े तलछट के रूप में परत दर परत जमा हो जाती है, जो झीलों के तल पर संरक्षित रहते हैं। 14 से. रेडियोकार्बन तकनीक का प्रयोग करके वैज्ञानिकों ने तलछट की परतों की आयु और तलछट के संचय होने की दर का पता लगाया है। इस तलछट के बढ़ने का कारण पेड़ों के बचे हिस्सों के जमाव का बढ़ना था, जो कि भूमि उपयोग में बदलाव के कारण हुआ था। इसके पीछे की वजह आबादी के लिए घरों के निर्माण और कृषि के लिए किया गया था। समय के साथ मानव बस्तियों में होने वाले सामाजिक-आर्थिक विकास का असर तलछट पर भी दिखाई देता है। 


अतः हाल फिलहाल में ही ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन ने अचानक अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया है, पर मानवीय गतिविधियों ने 4,000 साल पहले ही वैश्विक पर्यावरण को प्रभावित करना आरंभ कर दिया था। विश्लेषण के बाद पाया गया पूर्वानुमान 80 प्रतिशत तक सही है।


आज का विचार    

अँधेरा चाहे कितना भी घना हो 
लेकिन एक छोटा सा दीपक 
अँधेरे को चीरकर प्रकाश फैला देता है 
वैसे ही जीवन में चाहे कितना भी अँधेरा हो जाये 
विवेक रूपी प्रकाश अन्धकार को मिटा देता है

मंगलवार, 19 नवंबर 2019

आज का विचार  

मस्तक को थोड़ा झुकाकर देखिए 
आपका अभिमान मर जाएगा  

आँखें को थोड़ा भिगा कर देखिए 
आपका पत्थर दिल पिघल जाएगा 

दांतों को आराम देकर देखिए 
आपका स्वास्थ्य सुधर जाएगा 

जिव्हा पर विराम लगा कर देखिए 
आपका क्लेश का कारवाँ गुज़र जाएगा 

इच्छाओं को थोड़ा घटाकर देखिए 
आपको खुशियों का संसार नज़र आएगा

जलवायु परिवर्तन से 

अब हिमालय की जड़ी बूटियां खतरे में



कम तापमान वाले हिमालयी क्षेत्र जड़ी-बूटियों वाले माने जाते हैं। अब जलवायु परिवर्तन से ये क्षेत्र प्रभावित हो रहा है। वैज्ञानिकों (पौड़ी-गढ़वाल, उत्तरांचल) ने पाया कि जहां कुछ औषधीय पौधे विलुप्ति की कगार पर हैं, तो कई की प्रकृति बदल गई है। वैज्ञानिक डॉ आरके मैखुरी (जीबी पंत इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन इनवायरमेंट एंड सस्टेनेबल डेवलपमेंट) एवं उनके सहयोगियों ने 2007-2014 तक पांच हिमालयी जिलों रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी, चमोली, बागेश्वर तथा पिथौरागढ़ (उत्तराखंड) में जलवायु परिवर्तन से औषधीय पौधों पर पड़ रहे प्रभाव को जानकर पाया कि औषधीय पौधों के जीवन-चक्र, संख्या, समय से पूर्व फूल खिलने आदि में परिवर्तन आए हैं। इससे कुछ पौधे समाप्ति की कगार पर हैं, जिसमें प्रमुख हैं-Aconitum heterophyllum (अतीश-पेट दर्द), Angelica glaucaArnebia benthami (बालछड़ी-गंजापन), Asparagus racemosus (झिरणी-मिर्गी), Dactylorrhiza hatagirea (हत्ताजड़ी-चोट/जख्म), Delphinium denudatum  (जदवार-सांप के काटने पर), Nardostachys grandiflora (जटामाफी-गठिया), Paeonia emodi (धांधरू-डायरिया), Picrorhiza kurrooa (कुटकी-पीलिया), Podophyllum hexandrum (वन ककड़ी-कैंसर), Polygonatum verticillatum (सालम मिश्री-ल्यूकोरिया), Saussurea costus (कूट-खुजली), Saussurea obvallata (ब्रह्म कमल-हृदय परेशानियां), Selinum tenuifolium (भूतकेशी-खांसी), Swertia chirayita Roxb  (चिराइता-डायबेटीज)। 


40-45 तरह की जड़ी-बूटियां उगाने वाले वैद्य रघुनाथ गैरोला (त्रिजुगीनारायण, रुद्रप्रयाग) की माने तो उन्होंने औषधीय पौधे उगाने बंद कर दिए हैं। चूंकि पहले बर्फ अधिक गिरने से कम तापमान में औषधीय पौधे आराम से उगते थे, मौसम में गर्माहट आने से उनके उगने-खिलने की प्रक्रिया बदल गई है। इससे कुटकी, कूट, वन-ककड़ी, रिस्वक, जीवक और लाइकेन तो पूर्णतः समाप्त हो रहे हैं। बुरांश समय से पूर्व खिल रहा है साथ ही इसकी तासीर भी बदल गई है। धनरा के औषधीय तत्व क्षीण हुए है। पहले सेब कम खराब होने वाले मोटे बकल के थे, अब पतली परत वाले सिकुड़े आकार वाले सेब हो रहे हैं। 1970-71 में छः फीट तक गिरने वाली बर्फ अब 4-5 इंच तक रह गई है। समुद्र तल से लगभग 1800 फीट ऊंचे क्षेत्र पर तापमान 40 डिग्री तक पहुंचने वाला है। औषधीय और सुगंधित पौधों की संख्या एवं जगह प्रभावित हुई है। कुछ पौधे ऊंचाई की और बढ़ गए हैं। ये औषधियां जैव-विविधता संरक्षण एवं क्षेत्रीय लोगों की आजीविका का माध्यम भी हैं। 

सोमवार, 18 नवंबर 2019


आज का विचार 


अपनी कमियाँ पूरी दुनिया से छुपाओ, 
लेकिन अपनी कमियाँ कभी स्वयं से मत छुपाओ

चूंकि अपनी कमियाँ अपने से छिपाने का अर्थ है 
अपने आप को खुद बर्बाद करना

उत्तराखंड सरकार का बड़ा निर्णय

खेतों में रसायन प्रयोग पर होगी जेल

उत्तराखंड को जैविक राज्य के रूप में स्थापित करने के लिए राज्य सरकार ने अहम फैसला लेते हुए 13 नवंबर 2019 को कैबिनेट बैठक में उत्तराखंड जैविक कृषि विधेयक 2019 को स्वीकृति दे दी। जैविक कृषि विधेयक का उद्देश्य राज्य में जैविक खेती को बढ़ावा देकर जैविक उत्तराखण्ड ब्राण्ड स्थापित करना है, ताकि राज्य उत्पादों को देश-विदेश में मान्यता मिल सके। परम्परागत कृषि विकास योजना के अंतर्गत फिलहाल 2 लाख एकड़ भूमि में जैविक खेती हो रही है जिसमें 10 ब्लाकों को जैविक ब्लॉक घोषित किया जाएगा। 


प्रथम चरण में इन ब्लॉकों में किसी भी तरह के केमिकल, पेस्टीसाइट, इन्सेस्टिसाइट बेचने पर पूर्णतः प्रतिबन्ध होगा। जैविक ब्लॉक में रासायनिक अथवा सिंथेटिक खाद, कीटनाशक, खरपतवारनाशक/पशुओं को देने वाले चारे में रसायन के प्रयोग पर रोक होगी। उल्लंघन पर एक वर्ष की कैद और एक लाख रुपये तक जुर्माने का प्रावधान होगा। 10 चिन्हित ब्लॉक में इसके सफल रहने पर इसे पूरे प्रदेश में लागू किया जाएगा। जिन ऑर्गेनिक उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) केंद्र सरकार ने घोषित नहीं किया होगा, उनकी एमएसपी उत्तराखंड सरकार घोषित करेगी। ऐसा करने वाला उत्तराखण्ड देश का पहला राज्य होगा। 


मण्डी परिषद में रिवॉल्विंग फण्ड जनरेट किया जाएगा, जिससे मंडी परिषद किसानों के जैविक उत्पाद खरीदकर उसकी प्रोसेसिंग करने के बाद मार्केटिंग करेगी। इससे होने वाला लाभ किसानों में बांटा जायेगा। हार्टिकल्चर सेक्टर को सुरक्षित करने के लिए कैबिनेट बैठक ने सरकारी नर्सरी को नर्सरी एक्ट में डाल दिया है। सरकारी नर्सरी से निकलने वाली पौध की गुणवत्ता खराब होने पर नर्सरी पर सजा एवं जुर्माना होगा।

सरकार के इस निर्णय से किसानों को खेती के साथ पशुपालन भी करना होगा, क्योंकि बाजार से गोबर खरीदना महंगा होता है। जैविक खाद कहकर बेची जा रही खाद भी विश्वास करने योग्य नहीं है। जहां पूरी तरह मशीनों पर निर्भर बड़े किसानों के लिए जैविक खेती करना मुश्किल है, वहीं पर्वतीय क्षेत्र के छोटे किसान आसानी से जैविक खेती कर सकते हैं। पर्वतों पर जैविक खेती हेतु सिंचाई का पानी भी साफ होगा। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत पहले ही कह चुके हैं कि उत्तराखण्ड में वर्ष 2022 तक किसानों की आय को दोगुनी करने हेतु ‘मिट्टी से बाजार तक’ रणनीति बनाई जा रही है। 




रविवार, 17 नवंबर 2019

आज का विचार

सफलता का पैमाना नहीं होता- 

एक गरीब पिता का पुत्र बड़ा होकर 
ऑफिसर बने पिता के लिए यही सफलता है


जिस इंसान के पास कुछ खाने को न हो 
वो सुखपूर्वक 2 समय का भोजन जुटा ले ये भी सफलता है

शुक्रवार, 15 नवंबर 2019

देश के 10 राज्यों में चाव से खाए जाते हैं कीड़े

भविष्य में है अच्छी व्यावसायिक संभावनाएं

भारत में कीड़े खाना नई बात नहीं है। मध्य प्रदेश, उड़ीसा, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, मेघालय, नागालैंड, असम, मणिपुर एवं अरुणाचल प्रदेश में कीड़े खाएं जाते हैं। उत्तर पूर्वी भारतीय राज्यों में कीड़ों को सबसे अधिक खाया जाता है। अरुणाचल प्रदेश में 158 प्रजातियां खाई जाती हैं। प्रदेश की निशी और गालो जनजातियां कीड़ों की लगभग 102 प्रजातियां खाती हैं। रायगढ़ (उड़ीसा) के कोंध और सोरा जनजाति खजूरी पोका (डेट पॉम वर्म) बड़े चाव से खाती है। यह लाल चींटियों के अंडे (कइओंडा) भी खाते हैं। नागालैंड में भी लीपा के नामक प्रसिद्ध घुन (वुडवर्म) को ओक के पेड़ों से निकालकर खाया जाता है। मुरिया जनजाति (मध्य प्रदेश) चिनकारा नामक चीटियों की प्रजातियों का लार्वा खाती है। कर्नाटक के कुछ गांवों में रानी दीमक शारीरिक रूप से कमजोर बच्चों को जिंदा खिलाई जाती है। संयुक्त राष्ट्र के फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन (एफओए) द्वारा प्रकाशित “ईडेबल इंसेक्ट्स: फ्यूचर प्रोस्पेक्ट्स फॉर फूड एंड फीड सिक्योरिटी” (2013 ) के लेखक पॉल वान्टोम का कहना है कि विश्व में लगभग 200 करोड़ लोग कीड़े खाते हैं। ये कीड़े मुर्गों, मछलियों एवं सूअरों का प्राकृतिक आहार भी हैं। विश्वस्तर पर कीड़ों की 1,900 से अधिक प्रजातियां खाई जाती हैं। भारत में आदिवासी समुदाय 303 कीड़ों की प्रजातियों को खाते हैं।


वर्तमान जलवायु परिवर्तन के युग में आहार के रूप में कीड़ों पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। चूंकि इस आहार में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने की क्षमता है। संयुक्त राष्ट्र की स्पेशल रिपोर्ट ऑन क्लाइमेट चेंज एंड लैंड (अगस्त, 2019) में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के लिए उत्तरदायी कार्बन डाईऑक्साइड को कम करने हेतु मांसाहार से शाकाहार की ओर जाना होगा। इसमें यह भी कहा गया है कि कीड़े, मांस का अच्छा विकल्प हैं और ये पर्यावरण अनुकूल भी हैं। एफएओ रिपोर्ट की माने तो अगले तीन दशकों में 900 करोड़ होने वाली आबादी को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने में कीड़े महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे।

कीड़ों से मिलने वाले पोषक तत्वों को देखते हुए इनका व्यावसायिक महत्व बढ़ रहा है। भोजन के रूप में कीड़ों को प्रोत्साहित करने के तीन प्रमुख कारण हैं-पहला ये पर्यावरण के अनुकूल होते हैं, दूसरा पोषण गुण और तीसरा जीवनयापन के अवसर उपलब्ध कराने के कारण। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट की माने तो कीड़ों की अपेक्षा बीफ के एक ग्राम प्रोटीन के लिए 14 गुणा अधिक भूमि और 5 गुणा अधिक पानी की जरूरत होती है। इतना ही नहीं, परंपरागत मवेशियों की तुलना में कीड़ों से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन भी कम होता है। उदाहरणतः प्रति किलो मीलवर्म कीड़े के मुकाबले सूअर 10-100 गुणा अधिक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जित करते हैं। कीड़ों और बीफ से प्राप्त होने वाले प्रोटीन का तुलनात्मक अध्ययन करें, तो हम पाएंगे कि एक किलो झींगुर (क्रिकेट) में 205 ग्राम प्रोटीन और 68 ग्राम वसा होता है, जबकि बीफ में 256 ग्राम प्रोटीन और 187 ग्राम वसा मिलता है। झींगुर कैल्शियम, दीमक (टरमाइट) आयरन और रेशम कीट (सिल्कवर्म मोठ लार्वा) कॉपर एवं राइबोफ्लेविन की जरूरतों को पूरा करते हैं।


वित्तीय कंसलटेंसी कंपनी ग्लोबल मार्केट इनसाइट्स के अनुसार, 2015 में खा सकने वाले कीड़ों का बाजार 33 मिलियन डॉलर था, जो 40 प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ रहा है। परसिस्टेंस मार्केट रिसर्च के अनुसार, 2024 तक यह बाजार 700 मिलियन अमेरिकी डॉलर हो जाएगा। भारत जैसे देशों में खा सकने वाले कीड़ों के व्यवसाय की अत्यधिक संभावनाएं हैं, क्योंकि यहां मधुमक्खी और रेशम कीट काफी समय से पाले जा रहे हैं। हालांकि भारत में अभी कीड़ों का व्यवस्थित बाजार विकसित नहीं हुआ है, परन्तु स्थानीय स्तर पर कहीं-कहीं इनकी बिक्री होती है। उदाहरणतः नागालैंड के चिजामी गांव में दीमक का एक लार्वा 10-15 रुपए में बेचा जाता है। कोहिमा के बाजार में यह 40-50 रुपए में मिलता है। इसी तरह असम में रेशम का कीट 600-700 रुपए और लाल चींटियां 1000-1,500 रुपए प्रति किलो की दर से बिकती हैं। 

दूसरी ओर, यह भी सच है कि भारत में कीड़ों के प्रति लोगों का रूढ़िवादी नजरिया इसके व्यापार में बड़ी बाधा है, जिसको बदलना एक बड़ी चुनौती है। ब्रिटेन में इसकी शुरुआत हो चुकी है। औद्योगिक समूह एग्रीकल्चर बायोटेक काउंसिल के हालिया अध्ययन में सामने आया कि एक तिहाई अंग्रेज मानते हैं कि वे 2029 तक कीड़े खाने लगेंगे। 

जर्नल ऑफ बायोडायवर्सिटी, बायो प्रोस्पेक्टिंग एंड डेवलपमेंट में 2014 में प्रकाशित झरना चक्रवर्ती के अध्ययन से पता चलता है कि कीटों का संग्रहण करके न केवल फसलों को हानि से बचाया जा सकता है, वरन कीटनाशकों का उपयोग भी सीमित किया जा सकता है। फसलों पर हमला करने वाले कीट भले ही आहार के रूप में इस्तेमाल न किए जाए, परंतु ये पशुओं का पूरक आहार हो सकते हैं। पोषण तत्वों से भरपूर इन कीड़ों को आधुनिक उपकरणों और तकनीक की सहायता से घर के बगीचों में पाला जा सकता है। इसके बाद ये कीड़े जरूरतमंदों को बेचे जा सकते हैं, जिससे एक ओर ये लोगों के भोजन में शामिल होंगे और दूसरे इनके संरक्षण को भी बल मिलेगा।

डेविड ग्रेसर (अध्यक्ष, स्मॉल स्टॉक फूड स्ट्रेटजीज, अमेरिका) के अनुसार, कीड़ों को पालना गरीबों के जीवनयापन का अच्छा जरिया हो सकता है। शहरी कृषि कीड़ों से प्राप्त होने वाले प्रोटीन के उत्पादन का प्रभावी तरीका हो सकता है। औद्योगिक स्तर पर कीड़ों की खेती भी संभाव्य है, खासकर उन शहरों में जहां परंपरागत खेती मुश्किल है (कीड़ों में हैं व्यावसायिक संभावनाएं)।

प्रोफेसर ए वैन ह्यूस (ट्रॉपिकल एंटोमोलॉजी, वागनिगन यूनिवर्सिटी, नीदरलैंड्स) कहते हैं, इस उद्योग में निरंतर नए-नए स्टार्टअप सामने आ रहे हैं। इनमें से कुछ भारी लाभ भी कमा रहे हैं, जिससे पता चलता है कि निवेशकों को इसमें व्यापार की संभावनाएं नजर आ रही हैं। 

आज का विचार

बिना कुछ किये ज़िन्दगी गुज़ार देने से कहीं अच्छा है 
ज़िन्दगी को गलतियां करते गुज़ार देना

बुधवार, 13 नवंबर 2019


आज का विचार

नीम के पेड़ को चाहे दूध और घी से ही क्यों न सींचा जाये 
फिर भी नीम का वृक्ष मीठा नहीं होता, 

उसी प्रकार दुष्ट व्यक्ति को कितना भी ज्ञान दे दो 
वो अपनी दुष्टता नहीं त्यागता

मंगलवार, 12 नवंबर 2019

घर एवं कार्यालयों के पौधे हवा को साफ नहीं करते 


हम घर हो या दफ्तर दोनों को हवा की गुणवत्ता सुधारने एवं सजाने-संवारने के लिए पौधों की मदद लेते हैं, परंतु ड्रेक्सल यूनिवर्सिटी (अमेरिका) के एक अनुसंधान में पाया गया है कि घरों और कार्यालयों में हवा की प्राकृतिक आवाजाही (वेंटिलेशन) पौधों से ज्यादा हवा को साफ करने में सहायक होता हैं अर्थात् प्राकृतिक वेंटिलेशन पौधों से कहीं ज्यादा हवा की सफाई करता है। दर्जनों अध्ययनों की समीक्षा के बाद प्रोफेसर माइकल वॉरिंग एवं उनके सहयोगी ब्रायन कमिंग्स (ड्रेक्सल कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग में वास्तुकला और पर्यावरण इंजीनियरिंग) का कहना है कि ऐसा माना जाता है कमरों में रखे पौधे हवा को साफ करते हैं। वास्तव में यह पौधे आपके घर या कार्यालय के अंदर की हवा को बहुत कम या न के बराबर साफ करते हैं। उन्होंने 30 वर्षों के अनुसंधान में जो निष्कर्ष निकाले हैं, उन्हें हाल ही में एक्सपोज़र साइंस एंड एनवायर्नमेंटल एपिडेमियोलॉजी नामक पत्रिका में छापा गया है। 

आज का विचार


दूसरों के बारे में 
उतना ही बोले

जितना कि आप स्वयं 
के बारे में सुन सकते हों

सोमवार, 11 नवंबर 2019

जाने-राजस्थान में निरंतर 

क्यों कम हो रहे ऊंट 

राजस्थान में नाचना, गोमठ, अलवरी, बाड़मेरी, बीकानेरी, कच्छी, सिंधु और जैसलमेरी ऊंट की नस्लें पाई जाती हैं। राजस्थान में ऊंटों के अस्तित्व पर संकट आ गया है। राजस्थान के 2012 पशुगणना के मुताबिक राज्य में 3.26 लाख ऊंट थे। 2017 की पशु गणना के अनुसार इनकी संख्या 2.13 लाख ही रह गई है। एक राजस्थानी पशुपालक की माने तो सरकार ने ऊंट को राज्य पशु तो बना दिया, पर उसके संवर्धन के लिए कुछ नहीं किया। ऊंटों की तस्करी, बाहर ले जाने पर रोक और उपयोगिता में कमी आने कारण प्रदेश में ऊंटों के अस्तित्व पर संकट आ गया है। 2012 पशुगणना के अनुसार राज्य में 3.26 लाख ऊंट थे, 2017 की पशु गणना में इनकी संख्या 2.13 लाख ही रह गई है। यद्यपि ऊंट पालक इसे 1.5 लाख ही मानते हैं। देश के 80 फीसदी ऊंट राजस्थान में ही पाए जाते हैं। ऊंट कभी पश्चिमी राजस्थान के जीवन की धुरी था, परंतु गत 15-20 वर्षों में यातायात के साधन बढ़ने से परिवहन में इनका उपयोग कम हुआ। कृषि में नए संसाधनों और मशीनों से इसकी उपयोगिता कम हुई। ऊंट चरने की भूमि भी नहीं बची है। वन विभाग ऊंट को वन उजाड़ने वाला पशु मानता है। ऊंटों की खुराक के जुड़ में उनके पालकों की स्थिति गत कुछ वर्षों से बिगड़ती चली गई। विगत वर्ष से ऊंटों को पालने के लिए सरकारी सहायता ऊंट पालकों को नहीं दी गई है। ऊंटों की संख्या और प्रजनन को बढ़ावा देने के लिए 2016 में उष्ट्र विकास योजना शुरु हुई, जिसमें ऊंट पालकों को ऊंटनी के ब्याने पर टोडरियों (ऊंटनी के बच्चे) के रख-रखाव हेतु तीन किश्तों में 10 हजार रुपए सरकार देती है, जोकि नई सरकार ने अभी तक नहीं दी है। 

पहले ऊंट का बच्चा 10 हजार रुपये तक में बिकता था। अब जवान ऊंट मात्र पांच सौ से तीन हजार रुपए तक में ही बिक पाता है। मजबूर होकर हमें ऊंटनियां बेचनी पड़ रही हैं। ऊंटपालकों द्वारा भीलवाड़ा में ऊंट के दूध का प्लांट लगाने की मांग की जा रही है। चूंकि उदयपुर, चित्तौड़ और भीलवाड़ा में लगभग सात हजार लीटर ऊंट के दूध का उत्पादन होता है।


 


आज का विचार 


घमण्ड के अंदर सबसे बुरी बात होती है कि
वो आपको कभी महसूस होने नहीं देगा कि
‘‘आप गलत हैं’’

रविवार, 10 नवंबर 2019

आसमान से गिरने वाली बिजली कहां और कब गिरेगी 

पता लग सकेगा आपको आधा घंटे पहले ही


आपने बारिश के मौसम में चमचमाती तेज आवाज के साथ सर्पाकार आकाशीय बिजली को तड़तड़ाते देखा है। आकाश में चमकने वाली इस बिजली को तड़ित कहते हैं। साधारणतया इसमें 17,000 से 27,0000 डिग्री से. ताप होता है, जोकि सूर्य की सतह से तीन से पाँच गुना ज्यादा है। यही कारण है कि गत हजारों वर्षों से मनुष्यों एवं पशुओं को अपने प्राण खोने पड़ते हैं। अब स्विट्जरलैंड में ईपीएफएल (इकोल पॉलीटेक्निक फेडरल डि लौसाने) के अनुसंधानकर्ताओं ने फरहाद रशीदी के नेतृत्व में मौसम संबंधी डॉटा और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस आधारित सरल एवं सस्ती पद्धति विकसित की गई है, जोकि 30 किलोमीटर की सीमा में कहीं भी बिजली गिरने का पूर्वानुमान आधा घंटा पहले ही लगा सकती है। इस सन्दर्भ में व्यापक शोध अंतराष्ट्रीय जर्नल क्लाइमेट एंड एटमॉस्फियरिक साइंस में प्रकाशित हुआ है। यह तकनीक मशीन लर्निंग एल्गोरिथ्म की मदद से बिजली गिरने का पूर्वानुमान लगा सकती है। इसके लिए यह 4 तरह के मापदंडों पर निर्भर करती है-1. वायुमंडलीय दबाव, 2. हवा के तापमान, 3. सापेक्ष आर्द्रता और 4. हवा की गति। बिजली गिरने की परिस्थितियों से सम्बन्धी शर्तों की इन मापदंडों के आंकड़ों से मिलान करने पर उसके विश्लेषण से बिजली के बनने और गिरने के स्थान का पता लगाया जा सकता है। अध्ययन के अनुसार एक बार सिस्टम द्वारा इन सबका विश्लेषण कर लेने के बाद इसके द्वारा लगाया गया पूर्वानुमान 80 प्रतिशत तक सही पाया गया। 




आज का विचार

कभी फुरसत हो तो 
अपनी कमियों पर गौर करना

दूसरों के लिए आईना 
बनने की ख्वाहिश मिट जायेगी

गुरुवार, 7 नवंबर 2019

आज का विचार 

भरोसा करना सीखना 
जिंदगी के सबसे कठिन
कामों से एक है

और भरोसा तोड़ देना
दुनिया के सबसे आसान
कामों से एक

बुधवार, 6 नवंबर 2019

ऑनलाइन शॉपिंग भी नशे से कम नहीं 

2024 तक इसे दिया जा सकता है ’लत’ करार 


आज की दुनिया तकनीक की है। सारे काम ऑनलाइन कम्प्यूटर या मोबाइल से किए जा रहे हैं। खरीददारी हो, बिल भुगतान, होटल-टिकट बुकिंग लगभग सभी कुछ। जीवन को बहुत आसान बना दिया है तकनीक ने। बटन दबाया  काम आराम से हो गया, बिना कोई कष्ट उठाए।  
घर बैठे कम्प्यूटर या मोबाइल पर क्लिक करके मनचाहा सामान चुटकियों में मंगवाने की यह आदत आने वाले कुछ सालों में लत का रूप ले सकती है। रिसर्च फर्म गार्टनर की माने तो आने वाले समय में ऑनलाइन शॉपिंग की आदत इस कद्र बढ़ जाएगी कि 2024 तक विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) इस लत को बीमारी करार दे देगा। 2022 तक डिजिटल कॉमर्स प्लैटफॉर्म्स पर ग्राहकों के खर्च में प्रतिवर्ष 10 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी होगी। ऑनलाइन शॉपिंग के आरामदायक होने से लाखों लोगों में वित्तीय तनाव पैदा होगा, क्योंकि ऑनलाइन रिटेलर्स उपभोक्ताओं को आकर्षित करने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) और पर्सनलाइजेशन का इस्तेमाल बढ़ा रहे हैं। इसके चलते खरीदार जरूरत से अधिक पैसा खर्च कर रहे हैं, जो उनकी जेब पर भारी पड़ रहा है। माली हालत बिगड़ने से डिप्रेशन और अन्य स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां हो सकती हैं। डब्ल्यूएचओ इन पहलूओं पर नजर बनाएं हुए है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि ऑनलाइन शॉपिंग की बढ़ती सुगमता से लाखों लोगों पर वित्तीय संकट और बढ़ जाएगा। असल में अधिकांश ऑनलाइन विक्रेताओं द्वारा अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) का सहारा लिया जाता हैं। इससे वह लोगों को टारगेट करके उन्हें बिना जरूरत के अधिक खरीदारी करने को विवश करते हैं। इसके चक्कर में पड़कर उपभोक्ता अपनी आवश्यकता एवं क्षमताओं से अधिक खरीददारी करने लगते हैं। बेरोजगारी बढ़ती है। लाखों लोगों का परिश्रम से कमाया हुआ धन गैरजरूरी चीजें खरीदने पर भी व्यय हो जाता है। 
रिपोर्ट में दावा किया गया कि 2024 तक आर्टिफिशियल इमोशन इंटेलिजेंस के उपयोग से भारी मानवीय संकट पैदा होगा। तकनीक की सहायता से रोबोट भावनाओं को नियंत्रित करेगा। इंसान बैठकर इस रोबोट को कंट्रोल करेगा और कार्य संचालित किया जाएगा। ऐसे में कौशल की विकलांगता बढ़ेगी। उदाहरणतः रेस्टोरेंट अपने यहां ऑर्डर लेने एवं भोजन परोसने के लिए रोबोट का प्रयोग करेगा जो आगंतुकों से बात भी करेगा तथा उनकी पसंद भी समझेगा। ऐसे में होटल मैनेजमेंट में निपुण वेटरों का कौशल बेकार जाएगा। चूंकि वे मात्र रोबोटों को चलाते रह जाएंगे। गार्टनर ने इसके दूसरे पहलू का भी अनुमान लगाया है कि एआई और उभरती हुई तकनीकों के चलते 2023 तक शारीरिक रूप से असमर्थ लोगों के लिए रोजगार के मौके बढ़ेंगे। डिस्टिंग्विश्ड वाइस प्रेसिडेंट और गार्टनर फेलो डेरिल प्लमर ने बताया, ’इस तरह के लोगों के कौशल को अब तक उतने अवसर नहीं मिले हैं। एआई ऑगमेंटेड रिऐलिटी (एआर), वर्चुअल रियलिटी (वीआर) और अन्य उभरती तकनीकों के कारण इनके लिए काम करना आसान हुआ है। उदाहरणतः कुछ रेस्टोरेंट एआई रोबोटिक्स टेक्नॉलजी को आजमा रहे हैं। इससे पैरालाइज्ड कर्मचारियों को रोबॉटिक वेटर को नियंत्रित करने की सुविधा मिलती है। 
रिपोर्ट की माने तो 2025 तक 50 प्रतिशत से अधिक मोबाइलधारक के बैंकों में खाते नहीं होगे। वे क्रिप्टो करंसी का इस्तेमाल करेंगे। इतना ही नहीं वर्ष 2023 तक लगभग 4 जी-7 देशों में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग डिजाइनरों की निगरानी हेतु एक स्व-विनियमन संघ की स्थापना करनी पड़ सकती है। 2023 तक लगभग 30 पर्सेंट वर्ल्ड न्यूज और विडियो कॉटेंट को ब्लॉकचेन के जरिए जांचा जाएगा, ताकि फेक न्यूज पर लगाम कसी जा सके।



मंगलवार, 5 नवंबर 2019

आज का विचार 

जब भी किसी के घर जाएं, 
तो अपनी “आंखो” को इतना काबू में रखे 
कि उसके “सत्कार” के अलावा उसकी “कमियाँ” न दिखे 
और जब उसके घर से निकलो तो अपनी “ज़ुबान” काबू में रखे
ताकि उसके घर की “इज़्ज़त” और “राज़” दोनो सलामत रहे।