शनिवार, 15 जुलाई 2017

आया एक नया अध्ययन: जलवायु परिवर्तन 
कर सकता है एशिया को, ऐसे बुरी तरह प्रभावित


मनुष्य सभ्यता के दस हजार वर्षों में इतनी तपन कभी नहीं बढ़ी, जितनी 20वीं सदी के अंतिम दशक तथा 21वीं शताब्दी के आरंभिक दशक में अनुभव की गई। तापमान बढ़ने से ग्लेशियर पिघले। समुद्र जल स्तर बढ़ा। तबाही का मंजर बनता दिखा। वैज्ञानिक के निरंतर आह्वान के बावजूद विकास को लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन लगातार जारी है। तेज गति से हो रहे जलवायु परिवर्तन की समस्या ने हवा-पानी रहित भयानक भविष्य का शंखनाद कर दिया है। वैज्ञानिकों की माने तो तेज गति से संसार के संसाधनों की लूट से पचास वर्षों में दुनिया की आबादी की आवश्यकताओं को पूरा कराने के लिए पृथ्वी जैसे कम-से-कम दो और ग्रहों पर कब्जा करने की जरूरत पड़ जाएगी।

 ऐसे ही, जलवायु परिवर्तन के भयानक खतरों को दर्शाती हाल ही में एशियाई विकास बैंक (एडीबी) और पोटस्डम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इंपैक्ट रिसर्च (पीआईके) की एक रिपोर्ट में आई है। इसमें दावा किया है कि असंतुलित जलवायु परिवर्तन से वर्तमान में होने वाले विकास के विपरीत इन देशों का विकास भविष्य में गंभीर रुप से प्रभावित हो सकता है और जीवन की गुणवत्ता में कमी आएगी। प्रशांत महासागर क्षेत्र और एशिया के देशों में इसका भयानक प्रभाव पड़ने की संभावना है। इस रिपोर्ट में आगे बताया गया है कि 2030 के दशक में दक्षिण भारत में धान के पैदावार में पांच प्रतिशत तक गिर सकती है।

रिपोर्ट बताती है कि एशियाई देशों विशेषकर चीन, भारत, बांग्लादेश एवं इंडोनेशिया में भारी जनसंख्या में लोग निवास करते हैं, जिससे जनसंख्या विस्फोट की संभावना है। ऐसे में, बुरी से बुरी परिस्थितियों में बांग्लादेश, भारत और पाकिस्तान के निचले तटीय इलाके में 13 करोड़ लोगों के सामने इस सदी के अंत तक विस्थापित होने का खतरा है।

रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि ‘‘भारत के उत्तरी राज्यों में चावल की पैदावार बढ़ सकती है, जबकि दक्षिणी राज्यों में 2030 के दशक में इसमें पांच प्रतिशत, 2050 के दशक में 14.5 प्रतिशत और 2080 के दशक में 17 प्रतिशत की गिरावट आ सकती है।’’


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