हताश किसान ने नहीं की आत्महत्या
बल्कि खड़ी कर ली करोड़ो की इंडस्ट्री
मित्रों! काफी समय से व्यस्तता के कारण ब्लाॅक लिखने का समय नहीं मिला। यह बात दूसरी है कि एक शुभचिंतक मित्र ने कई बार ताने में ही सही मुझे बार-बार याद दिलाया कि ‘‘लगता है कि बहुत दिन हो गए, कोई किसान अमीर नहीं बना’’। शुक्रिया इस मित्र को मुझे प्रेरित करने के लिए। मेरा मानना है कि हमारे आसपास सदैव अपार संभावनाएं रहती हैं, जोकि हमारी किस्मत को बदल सकती हैं। इसके साथ-साथ अगर हौसले बुलंद हों और संभावनाओं को परखने की योग्यता हो तो इस संसार में किसी को भी सफल होने से कोई नहीं रोक सकता। अपनी श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए आज हम आपको ऐसे ही एक और किसान सभापति शुक्ला से मिलवाने जा रहे हैं, जिन्होंने हताशा में भी हौंसला न हारते हुए गांव में ही इंडस्ट्री खड़ी करके करोड़ों का कारोबार कर डाला।
राष्ट्रीय राजमार्ग 28 पर बस्ती से 55 किलो मीटर दूर बसा गांव केसवापुर (उत्तर प्रदेश) अनेक दशकों से बुनियादी आवश्यकताओं से वंचित है। स्थिति इतनी भयावह है कि युवा बेरोजगारी के कारण शहरों की ओर पलायन करते हैं। ऐसे में एक किसान सभापति शुक्ला की सोच ने पूरे गांव की तस्वीर ही बदल डाली।
सभापति शुक्ला को वर्ष 2001 में पारिवारिक कलह के कारण घर से अलग होना पड़ा। बपौती के रूप में मिली एक छोटी सी झोंपड़ी से जीवन का आरंभ किया। ग्रामीण बैंक से लोन लेकर गन्ने क्रशर व्यवसाय शुरू किया। दो वर्ष तक व्यवसाय ठीक ठाक चला परंतु तीसरे वर्ष से उन्हें दोगुनी हानि होने लगी। परेशान हताश शुक्लाजी ने एक रात अपनी पत्नी को गन्ने के गठर में आग लगाने को कहा। पत्नी ने गन्ना जलाने की बजाय उसके रस से सिरका बनाने और उसे लोगों को बांटने की राय दी। फिर क्या था, लोगों की सिरके के लिए भरपूर मांग आने लगी। शुक्लाजी को इसमें बिजनेस की नई किरण दिखने लगी।
शुक्लाजी ने शुरूआत में क्लाइंट, छोटे दुकानदारों और कारोबारियों को सिरका बनाकर बेचा। मांग बढ़ने लगी, फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज वह लाखों लीटर सिरका बनाकर उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पंजाब, बंगाल, दिल्ली, हरियाणा, मध्यप्रदेश आदि राज्य में सप्लाई करके करोड़ों रुपए का वार्षिक टर्नओवर ही नहीं ले रहे हैं, बल्कि गांव के सैंकड़ों नवयुवकों को रोजगार भी दे रहे हैं। शुक्लाजी की माने तो 200 लीटर सिरका बनाने में लगभग दो हजार रुपए खर्च आता है जबकि बेचने पर 2 हजार रुपए प्रति ड्रम की बचत होती है। सिरके की अच्छी बिक्री के बाद सभापतिजी ने आचार बनाकर बेचने और हाईवे पर रेस्टोरेंट खोलने की भी प्लानिंग करनी शुरू कर दी है।
दस हजार स्क्वायर फीट में फैली फैक्ट्री, साथ ही पड़ी जमीन पर खेती के साथ-साथ शुक्लाजी करीब आधा दर्जन दुधारू पशुओं की एक छोटी डेरी भी चलाते हैं। तो शुक्ला जी से दूसरे किसानों को भी सीखना चाहिए कि परेशानी और हताशा चाहे जितनी भी हो लेकिन उसमें भी उम्मीद की किरण को खोजा जा सकता है।
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