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सोमवार, 31 जुलाई 2017
शनिवार, 15 जुलाई 2017
आया एक नया अध्ययन: जलवायु परिवर्तन
कर सकता है एशिया को, ऐसे बुरी तरह प्रभावित
मनुष्य सभ्यता के दस हजार वर्षों में इतनी तपन कभी नहीं बढ़ी, जितनी 20वीं सदी के अंतिम दशक तथा 21वीं शताब्दी के आरंभिक दशक में अनुभव की गई। तापमान बढ़ने से ग्लेशियर पिघले। समुद्र जल स्तर बढ़ा। तबाही का मंजर बनता दिखा। वैज्ञानिक के निरंतर आह्वान के बावजूद विकास को लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन लगातार जारी है। तेज गति से हो रहे जलवायु परिवर्तन की समस्या ने हवा-पानी रहित भयानक भविष्य का शंखनाद कर दिया है। वैज्ञानिकों की माने तो तेज गति से संसार के संसाधनों की लूट से पचास वर्षों में दुनिया की आबादी की आवश्यकताओं को पूरा कराने के लिए पृथ्वी जैसे कम-से-कम दो और ग्रहों पर कब्जा करने की जरूरत पड़ जाएगी।
ऐसे ही, जलवायु परिवर्तन के भयानक खतरों को दर्शाती हाल ही में एशियाई विकास बैंक (एडीबी) और पोटस्डम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इंपैक्ट रिसर्च (पीआईके) की एक रिपोर्ट में आई है। इसमें दावा किया है कि असंतुलित जलवायु परिवर्तन से वर्तमान में होने वाले विकास के विपरीत इन देशों का विकास भविष्य में गंभीर रुप से प्रभावित हो सकता है और जीवन की गुणवत्ता में कमी आएगी। प्रशांत महासागर क्षेत्र और एशिया के देशों में इसका भयानक प्रभाव पड़ने की संभावना है। इस रिपोर्ट में आगे बताया गया है कि 2030 के दशक में दक्षिण भारत में धान के पैदावार में पांच प्रतिशत तक गिर सकती है।
रिपोर्ट बताती है कि एशियाई देशों विशेषकर चीन, भारत, बांग्लादेश एवं इंडोनेशिया में भारी जनसंख्या में लोग निवास करते हैं, जिससे जनसंख्या विस्फोट की संभावना है। ऐसे में, बुरी से बुरी परिस्थितियों में बांग्लादेश, भारत और पाकिस्तान के निचले तटीय इलाके में 13 करोड़ लोगों के सामने इस सदी के अंत तक विस्थापित होने का खतरा है।
रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि ‘‘भारत के उत्तरी राज्यों में चावल की पैदावार बढ़ सकती है, जबकि दक्षिणी राज्यों में 2030 के दशक में इसमें पांच प्रतिशत, 2050 के दशक में 14.5 प्रतिशत और 2080 के दशक में 17 प्रतिशत की गिरावट आ सकती है।’’
गुरुवार, 13 जुलाई 2017
हताश किसान ने नहीं की आत्महत्या
बल्कि खड़ी कर ली करोड़ो की इंडस्ट्री
मित्रों! काफी समय से व्यस्तता के कारण ब्लाॅक लिखने का समय नहीं मिला। यह बात दूसरी है कि एक शुभचिंतक मित्र ने कई बार ताने में ही सही मुझे बार-बार याद दिलाया कि ‘‘लगता है कि बहुत दिन हो गए, कोई किसान अमीर नहीं बना’’। शुक्रिया इस मित्र को मुझे प्रेरित करने के लिए। मेरा मानना है कि हमारे आसपास सदैव अपार संभावनाएं रहती हैं, जोकि हमारी किस्मत को बदल सकती हैं। इसके साथ-साथ अगर हौसले बुलंद हों और संभावनाओं को परखने की योग्यता हो तो इस संसार में किसी को भी सफल होने से कोई नहीं रोक सकता। अपनी श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए आज हम आपको ऐसे ही एक और किसान सभापति शुक्ला से मिलवाने जा रहे हैं, जिन्होंने हताशा में भी हौंसला न हारते हुए गांव में ही इंडस्ट्री खड़ी करके करोड़ों का कारोबार कर डाला।
राष्ट्रीय राजमार्ग 28 पर बस्ती से 55 किलो मीटर दूर बसा गांव केसवापुर (उत्तर प्रदेश) अनेक दशकों से बुनियादी आवश्यकताओं से वंचित है। स्थिति इतनी भयावह है कि युवा बेरोजगारी के कारण शहरों की ओर पलायन करते हैं। ऐसे में एक किसान सभापति शुक्ला की सोच ने पूरे गांव की तस्वीर ही बदल डाली।
सभापति शुक्ला को वर्ष 2001 में पारिवारिक कलह के कारण घर से अलग होना पड़ा। बपौती के रूप में मिली एक छोटी सी झोंपड़ी से जीवन का आरंभ किया। ग्रामीण बैंक से लोन लेकर गन्ने क्रशर व्यवसाय शुरू किया। दो वर्ष तक व्यवसाय ठीक ठाक चला परंतु तीसरे वर्ष से उन्हें दोगुनी हानि होने लगी। परेशान हताश शुक्लाजी ने एक रात अपनी पत्नी को गन्ने के गठर में आग लगाने को कहा। पत्नी ने गन्ना जलाने की बजाय उसके रस से सिरका बनाने और उसे लोगों को बांटने की राय दी। फिर क्या था, लोगों की सिरके के लिए भरपूर मांग आने लगी। शुक्लाजी को इसमें बिजनेस की नई किरण दिखने लगी।
शुक्लाजी ने शुरूआत में क्लाइंट, छोटे दुकानदारों और कारोबारियों को सिरका बनाकर बेचा। मांग बढ़ने लगी, फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज वह लाखों लीटर सिरका बनाकर उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पंजाब, बंगाल, दिल्ली, हरियाणा, मध्यप्रदेश आदि राज्य में सप्लाई करके करोड़ों रुपए का वार्षिक टर्नओवर ही नहीं ले रहे हैं, बल्कि गांव के सैंकड़ों नवयुवकों को रोजगार भी दे रहे हैं। शुक्लाजी की माने तो 200 लीटर सिरका बनाने में लगभग दो हजार रुपए खर्च आता है जबकि बेचने पर 2 हजार रुपए प्रति ड्रम की बचत होती है। सिरके की अच्छी बिक्री के बाद सभापतिजी ने आचार बनाकर बेचने और हाईवे पर रेस्टोरेंट खोलने की भी प्लानिंग करनी शुरू कर दी है।
दस हजार स्क्वायर फीट में फैली फैक्ट्री, साथ ही पड़ी जमीन पर खेती के साथ-साथ शुक्लाजी करीब आधा दर्जन दुधारू पशुओं की एक छोटी डेरी भी चलाते हैं। तो शुक्ला जी से दूसरे किसानों को भी सीखना चाहिए कि परेशानी और हताशा चाहे जितनी भी हो लेकिन उसमें भी उम्मीद की किरण को खोजा जा सकता है।
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