गुरुवार, 13 फ़रवरी 2025

मुफ्त की रेवड़ियों पर सुप्रीम कोर्ट की चिंता 

कल्याण और आर्थिक स्थिरता के बीच संतुलन की जरूरत


मुफ्त सुविधाएँ और कल्याणकारी योजनाओं के बीच अंतर करना आवश्यक है। स्वास्थ्य, शिक्षा, और रोजगार जैसे क्षेत्रों में निवेश टिकाऊ विकास की नींव रखते हैं, जबकि लोकलुभावन "रेवड़ियाँ" अर्थव्यवस्था को कमजोर करती हैं। सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी एक सार्थक बहस की शुरुआत है, जिसमें राजनीतिक इच्छाशक्ति और जनभागीदारी दोनों की आवश्यकता है। यह समय संवैधानिक मूल्यों और आर्थिक समझदारी के साथ नीतियाँ बनाने का है।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त सुविधाएँ (फ्रीबीज) प्रदान करने की प्रवृत्ति पर गहरी चिंता व्यक्त की है। न्यायालय ने इन "रेवड़ियों" को दीर्घकालिक आर्थिक स्थिरता और सार्वजनिक व्यवहार के लिए हानिकारक बताया है। यह चेतावनी एक ऐसे समय में आई है जब चुनावी वादों में मुफ्त बिजली, पानी, यात्रा, और अन्य सुविधाओं की होड़ तेज हो गई है।

भारत में मुफ्त सुविधाओं की राजनीति नया नहीं है। 1960 के दशक से ही "रोटी, कपड़ा, मकान" जैसे नारों ने चुनावी रणनीतियों को प्रभावित किया है। हालाँकि, पिछले दो दशकों में यह प्रवृत्ति बढ़ी है, जिसमें तमिलनाडु जैसे राज्यों ने टीवी, ग्राइंडर मशीन, और नकद हस्तांतरण जैसे योजनाओं को लागू किया है।



सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियाँ
2022 में, सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि मुफ्त सुविधाएँ "राजकोषीय अराजकता" को जन्म दे सकती हैं। मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमण ने इन्हें "लोकलुभावन उपाय" बताते हुए एक स्वतंत्र समिति गठित करने का सुझाव दिया, जो इनके आर्थिक प्रभाव का आकलन करे। कोर्ट ने चुनाव आयोग से भी इन्हें विनियमित करने के लिए दिशा-निर्देश बनाने को कहा।


आर्थिक प्रभाव

  • राजकोषीय घाटा: मुफ्त सुविधाएँ राज्यों के वित्तीय संसाधनों पर दबाव डालती हैं। उदाहरण के लिए, पंजाब और दिल्ली में बिजली सब्सिडी ने 2023 में क्रमशः 15,000 करोड़ और 3,200 करोड़ के घाटे को जन्म दिया।अवसंरचना की उपेक्षा: इन योजनाओं पर खर्च बढ़ने से शिक्षा, स्वास्थ्य, और बुनियादी ढाँचे के विकास में कटौती होती है।
  • मुद्रास्फीति: अत्यधिक खर्च से अर्थव्यवस्था में माँग बढ़ सकती है, जो महँगाई को बढ़ावा देती है।


सामाजिक प्रभाव

  • निर्भरता की मानसिकता: नागरिकों में सरकारी सहायता की अपेक्षा बढ़ती है, जो स्वावलंबन को कमजोर करती है।

  • असमानता: अक्सर ये योजनाएँ वास्तविक जरूरतमंदों तक नहीं पहुँचतीं, बल्कि राजनीतिक समर्थन हासिल करने का माध्यम बन जाती हैं।


राजनीतिक गतिकी

चुनावी लाभ के लिए दल "फ्रीबी कल्चर" को बढ़ावा देते हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 में मुफ्त सुविधाओं को प्रत्येक राजनीतिक पार्टी ने भुनाने का प्रयास किया। आम आदमी पार्टी ने पिछले चुनावों में “मुफ्त बिजली-पानी“ के वादों को अपनी जनाधार मजबूत करने के लिए रणनीतिक रूप से इस्तेमाल किया था, जिसके परिणामस्वरूप 2020 में उसे भारी बहुमत मिला। हालाँकि, 2025 में बीजेपी भी इस मैदान में उतर गई, जिसके कारण आम आदमी पार्टी को इस रणनीति के अंतर्गत पुनः जीत को दोहराना संभव न हो सका। मनोवैज्ञानिक तौर पर, मतदाता अल्पकालिक लाभ को दीर्घकालिक नीतियों पर प्राथमिकता देते हैं।



विनियमन और समाधान

  • फ़िस्कल रिस्पॉन्सिबिलिटी एंड बजट मैनेजमेंट (FRBM) एक्ट: राज्यों को घाटे की सीमा का पालन सुनिश्चित करना चाहिए।
  • योजनाओं का वैज्ञानिक मूल्यांकन: सुप्रीम कोर्ट के सुझाव के अनुसार, एक स्वतंत्र निकाय योजनाओं की टिकाऊता की जाँच करे।
  • जागरूकता अभियान: मतदाताओं को दीर्घकालिक विकास के महत्व के प्रति शिक्षित करना।


मुफ्त की रेवड़ियों की संस्कृति पर सुप्रीम कोर्ट की चिंता केवल आर्थिक दृष्टिकोण तक सीमित नहीं है, बल्कि यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शुचिता, दीर्घकालिक विकास और जिम्मेदार शासन की आवश्यकता को भी रेखांकित करती है। राजनीतिक दलों को अल्पकालिक लाभ से ऊपर उठकर नीति-निर्माण में सतत विकास और वित्तीय अनुशासन को प्राथमिकता देनी चाहिए। समाज और सरकार के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए आर्थिक विवेक और सामाजिक न्याय, दोनों का समान रूप से ध्यान रखना आवश्यक है।

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